भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सँभलकर राह में चलना वही पत्थर सिखाता है / कृष्ण कुमार ‘नाज़’" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: <poem>सँभलकर राह में चलना वही पत्थर सिखाता है हमारे पाँव के आगे जो ठो…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
21:30, 23 अगस्त 2011 का अवतरण
सँभलकर राह में चलना वही पत्थर सिखाता है
हमारे पाँव के आगे जो ठोकर बनके आता है
नहीं दीवार के ज़ख़्मों का कुछ अहसास इन्साँ को
जो कीलें गाड़ने के बाद तसवीरें लगाता है
मैं जैसे वाचनालय में रखा अख़बार हूँ कोई
जो पढ़ता है वो बेतरतीब अक्सर छोड़ जाता है
मुसव्विर प्यास की हद से गुज़रता है कोई जब भी
तभी तस्वीर काग़ज़ पर समंदर की बनाता है
ये सच है सीढि़याँ शोहरत की चढ़ जाने के बाद इन्साँ
सहारा देने वाले ही को अक्सर भूल जाता है
न ऐसे शख़्स को चौखट से ख़ाली हाथ लौटाओ
जो इक रोटी के बदले सौ दुआएँ दे के जाता है
बहुत मुश्किल है ‘नाज़’ अहसान का बदला चुका पाना
दिये को ख़ुद धुआँ उसका अकेला छोड़ जाता है