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पंक्ति 1: |
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− | काश हमारे शब्द अपाहिज नही होते
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− | न जाने किन पैरों पर ,
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− | खड़ा रहता है आसमान
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− | दिन-रात बिना थके हुए ?
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− | मेरे तुम्हारे शब्दों को,
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− | बैसाखी की जरुरत,
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− | महसूस हुआ करती है |
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− | हम शायद ...
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− | आहात-अपाहिज मन से बोलते हैं
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− | या सहानुभूतियो की किताब,
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− | उस जगह से खोलते हैं,
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− | जहाँ पृष्ठभर हाशिए के सिवा
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− | होता नही कुछ ....
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− | कभी हम , निकल जाते हैं
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− | सिद्धार्थ की तरह,
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− | यथार्थ की खोज में
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− | न जाने किन पैरों पर
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− | खड़ा रहता है आसमान....?
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− | काश हमें पहले बता दिया गया होता
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− | आसमाँ कुछ नहीं ,
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− | एक हवा है , धुआँ है , शून्य है
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− | और ,
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− | हवा को,
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− | धुआँ को
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− | शून्य को ...
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− | बैसाखी की जरूरत
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− | महसूस नहीं हुआ करती ,
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− | वह तो अपने शाश्वत सत्य पर
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− | टिका रहता है
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− | दिन रात.... बिना थके हुए ...
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− | काश यूँ ही..... हमारे शब्द
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− | बिना सहारे ,
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− | हवा की तरह....
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− | धुआँ की तरह ....
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− | शून्य की तरह ....
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− | दिन–रात ,बिना थके
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− | टिके रहते ..... अपने अर्थ पर
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− | काश; हमारे शब्द कभी अपाहिज नही होते
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− | SUSHIL YADAV
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− | 09426764552
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− | VADODARA
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− | महानगर मेरे अनुभव
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− | महानगर मेरे अनुभव
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− | खुशियों को मैंने हाशिए पर
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− | छोड़ दिया है,
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− | बचे पृष्ठों पर तुमसे केवल
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− | पीड़ा की बात कहता हूँ
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− | ***
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− | दोस्त,
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− | इस भीड़ भरे ,
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− | रिश्तों के अपरिचित…
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− | अनजान नगर में,
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− | जब से आया,
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− | कटा –कटा,
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− | टूटा,
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− | मुरझाया-सा
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− | अकेला रहता हूँ
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− | ***
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− | यन्त्रणाये सुबहो-शाम मुझे
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− | रौदती हैं ,
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− | कल-कारखानो की आवाज ,
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− | बिजलियाँ बन ,मन कौंधती हैं ....
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− | यह महानगर नर्क है,
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− | ऊपरी दिखावे , चमक –धमक ऊपरी
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− | और बेडा सभी का गर्क है ...
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− | महज…
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− | अपने –अपनों में सब,
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− | घिरे लगते हैं,
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− | जिंदगी के, कठिन भिन्न को
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− | करते सरल , सिरफिरे लगते हैं ...
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− | यहाँ , आदमी, आदमी को नहीं पहचानते
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− | इंसानियत को कोई एवज नहीं मानते ...
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− | इसीलिए ,
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− | भूखो बिलखती यहाँ
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− | सलमा और सीता
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− | कोरे उपदेश देने लगे यहाँ के,
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− | कुरान व् गीता
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− | इसी नगर के चौराहे पर,
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− | खून पसीना , निर्धन बिकता है
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− | इमान –मजहब , मन बिकता है
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− | जिन्दा –जिस्म , कफन बिकता है...
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− | इसी नगर की गलियों से,
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− | उठती लहरें बगावत की
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− | तूफां यही होता है पैदा ,
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− | झगड़े –झंझट , झंझावत भी |
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− | इस महानगर के नर्क को झेलते- झेलते
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− | मै..
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− | तंग आ गया हूँ,
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− | फिर भी सब सहता हूँ
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− | बस दोस्त ,
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− | इसीलिए ,कुछ जी हल्का करने
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− | तुमसे ,पीड़ा की बात
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− | पृष्ठों पर कहता हूँ ....
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− | ***
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− | वैसे तो सभ्यता के नाम पर,
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− | मैंने भी चाहा...
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− | मेरे नगर का नित, नव –निर्माण हो,
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− | यहाँ रहने –बसने वालो का
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− | अनवरत कल्याण हो,
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− | पर कोई साक्ष्य नहीं..
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− | जो उंगली पकड़े
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− | इस बीमार नगर की
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− | पीडाओं को बांटे ,
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− | अपरचित, सुनसान डगर की
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− | हर चेहरा यहाँ,
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− | बेबस है ,लाचार है ....
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− | हमारा साहस बौना ,
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− | सामने.... , विवशताओ की लंबी –उची दीवार है .... तो दोस्त
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− | इतने बड़े, शहर में तुम,
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− | मेरा पता –ठिकाना जान सकोगे ?
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− | रिश्तों के अपरिचित –अंजान नगर में ,
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− | मुझे अकेले ढूँढ , पहचान सकोगे ?
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− | वैसे तो मै ...,
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− | ‘खुद’ से गुम गया हूँ ,
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− | मुझे ही नहीं मालूम मै कहाँ हूँ
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− | पर कभी कभी अब भी लगता है
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− | मै गंदी- नालियों में दिन-रात यहाँ
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− | बहता हूँ ,
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− | बस दोस्त ,
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− | इसीलिए कुछ जी हल्का करने
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− | तुमसे , पीड़ा की बात
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− | मै पृष्ठों पर कहता हूँ ,
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− | खुशियों को अलग मैंने....
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− | हाशिए पर छोड़ दिया है |
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− | सुशील यादव
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− | ०९४२६७६४५५२
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