"गरीब / निशांत मिश्रा" के अवतरणों में अंतर
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− | ज़िन्दगी गरीब की वो गर्म हवा है, जो साँस लेकर छोड़ दी जाती है, | + | ज़िन्दगी गरीब की वो गर्म हवा है, |
− | ज़िन्दगी गरीब की वो गर्म सलाख है, जो जिधर चाहें मोड़ दी जाती है, | + | जो साँस लेकर छोड़ दी जाती है, |
+ | ज़िन्दगी गरीब की वो गर्म सलाख है, | ||
+ | जो जिधर चाहें मोड़ दी जाती है, | ||
कौन पूछता है हाल इनका, ज़माने में कैसे रहते हैं, | कौन पूछता है हाल इनका, ज़माने में कैसे रहते हैं, | ||
छोटे से ले बड़ों तक के ज़ुल्मों सितम सहते हैं, | छोटे से ले बड़ों तक के ज़ुल्मों सितम सहते हैं, | ||
गर्दन दी दबा गर आवाज़ इन्होंने उठाई, | गर्दन दी दबा गर आवाज़ इन्होंने उठाई, | ||
− | सिर जरा सा ऊँचा किया तो समझो, जीवन में शामत आई, | + | सिर जरा सा ऊँचा किया तो समझो, |
+ | जीवन में शामत आई, | ||
बिलबिलाते हैं लाखों कीड़े से गरीब इस जहाँ में, | बिलबिलाते हैं लाखों कीड़े से गरीब इस जहाँ में, | ||
फिरते हैं पागल कुत्ते से, गरीब इस जहाँ में, | फिरते हैं पागल कुत्ते से, गरीब इस जहाँ में, | ||
कौन पूछता है कि खाने को रोटी है या नहीं, | कौन पूछता है कि खाने को रोटी है या नहीं, | ||
− | सर्दी, गर्मी, बरसात में सिर छुपाने को, टूटा छप्पर है या नहीं, | + | सर्दी, गर्मी, बरसात में सिर छुपाने को, |
− | पग-पग गरीबों को बेरहम अमीरों की, ठोकर लगा करती है, | + | टूटा छप्पर है या नहीं, |
− | कैसी है उनकी थाती, भूख, बेइज्जती, क्रूरता सब सहा करती है, | + | पग-पग गरीबों को बेरहम अमीरों की, |
− | कौन पूछता है, मर गया तो मर जाने दो, गरीब ही तो है, | + | ठोकर लगा करती है, |
+ | कैसी है उनकी थाती, भूख, बेइज्जती, क्रूरता | ||
+ | सब सहा करती है, | ||
+ | कौन पूछता है, मर गया तो मर जाने दो, | ||
+ | गरीब ही तो है, | ||
जलाने को पैसे नहीं, कहाँ से आयें, | जलाने को पैसे नहीं, कहाँ से आयें, | ||
पानी में बहा दो, गरीब ही तो है | पानी में बहा दो, गरीब ही तो है | ||
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21:34, 26 अगस्त 2011 के समय का अवतरण
ज़िन्दगी गरीब की वो गर्म हवा है,
जो साँस लेकर छोड़ दी जाती है,
ज़िन्दगी गरीब की वो गर्म सलाख है,
जो जिधर चाहें मोड़ दी जाती है,
कौन पूछता है हाल इनका, ज़माने में कैसे रहते हैं,
छोटे से ले बड़ों तक के ज़ुल्मों सितम सहते हैं,
गर्दन दी दबा गर आवाज़ इन्होंने उठाई,
सिर जरा सा ऊँचा किया तो समझो,
जीवन में शामत आई,
बिलबिलाते हैं लाखों कीड़े से गरीब इस जहाँ में,
फिरते हैं पागल कुत्ते से, गरीब इस जहाँ में,
कौन पूछता है कि खाने को रोटी है या नहीं,
सर्दी, गर्मी, बरसात में सिर छुपाने को,
टूटा छप्पर है या नहीं,
पग-पग गरीबों को बेरहम अमीरों की,
ठोकर लगा करती है,
कैसी है उनकी थाती, भूख, बेइज्जती, क्रूरता
सब सहा करती है,
कौन पूछता है, मर गया तो मर जाने दो,
गरीब ही तो है,
जलाने को पैसे नहीं, कहाँ से आयें,
पानी में बहा दो, गरीब ही तो है