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"खुद अपनी हक़परस्ती के लिए जो अड़ नहीं सकता / नवीन सी. चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर

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19:17, 29 अगस्त 2011 का अवतरण

खुद अपनी हक़परस्ती के लिए जो अड़ नहीं सकता।
ज़माने से लड़ेगा क्या, जो खुद से लड़ नहीं सकता।१।

तरक़्क़ी चाहिए तो बन्दिशें भी तोड़नी होंगी।
अगर लंगर पड़ा हो तो सफ़ीना बढ़ नहीं सकता।२।

शराफ़त की हिमायत शायरी में ठीक लगती है।
सियासत में भले लोगों को झण्डा गड़ नहीं सकता।३।

सभी के साथ हैं कुछ ख़ूबियाँ तो ख़ामियाँ भी हैं।
भले हो शेर बब्बर, पेड़ों पर वो चढ़ नहीं सकता।४।

अब अच्छा या बुरा, जैसा भी है ये मूड है मेरा।
अगर मैं छोड़ दूँ इस को तो ग़ज़लें पढ़ नहीं सकता।५।