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"आदमीयत की वक़ालत कर रहा है आदमी / नवीन सी. चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर

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आदमीयत की वक़ालत कर रहा है आदमी|<br />
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यूँ उज़ालों की हिफ़ाज़त कर रहा है आदमी|१|<br />
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|रचनाकार=नवीन सी. चतुर्वेदी
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<poem>आदमीयत की वक़ालत कर रहा है आदमी|
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यूँ उज़ालों की हिफ़ाज़त कर रहा है आदमी
चोट खा कर भी, शराफ़त कर रहा है आदमी|३|<br />
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सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का
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वो समझ बैठे, बग़ावत कर रहा है आदमी
अनपढ़ों के जैसी हरक़त कर रहा है आदमी|४|<br />
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छीन कर कुर्सी, अदालत में घसीटा है फ़क़त|
जब ये चाहेगा बदल देगा ज़माने का मिजाज़|<br />
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चोट खा कर भी, शराफ़त कर रहा है आदमी
सिर्फ क़ानूनों की इज्ज़त कर रहा है आदमी |५|<br />
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आँखें मूंदे टेक्स भरता जा रहा है बेहिसाब
सल्तनत के तख़्त के नीचे है लाशों की परत|<br />
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अनपढ़ों के जैसी हरक़त कर रहा है आदमी
कैसे हम कह दें, हुक़ूमत कर रहा है आदमी|६|<br />
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जब ये चाहेगा बदल देगा ज़माने का मिजाज़
मुद्दतों से शह्र की ख़ामोशियाँ यह कह रहीं|<br />
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सिर्फ क़ानूनों की इज्ज़त कर रहा है आदमी
आज कल भेड़ों की सुहबत कर रहा है आदमी|७|<br />
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सल्तनत के तख़्त के नीचे है लाशों की परत
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मुद्दतों से शह्र की ख़ामोशियाँ यह कह रहीं
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आज कल भेड़ों की सुहबत कर रहा है आदमी</poem>

22:21, 29 अगस्त 2011 के समय का अवतरण

आदमीयत की वक़ालत कर रहा है आदमी|
यूँ उज़ालों की हिफ़ाज़त कर रहा है आदमी

सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का
वो समझ बैठे, बग़ावत कर रहा है आदमी

छीन कर कुर्सी, अदालत में घसीटा है फ़क़त|
चोट खा कर भी, शराफ़त कर रहा है आदमी

आँखें मूंदे टेक्स भरता जा रहा है बेहिसाब
अनपढ़ों के जैसी हरक़त कर रहा है आदमी

जब ये चाहेगा बदल देगा ज़माने का मिजाज़
सिर्फ क़ानूनों की इज्ज़त कर रहा है आदमी

सल्तनत के तख़्त के नीचे है लाशों की परत
कैसे हम कह दें, हुक़ूमत कर रहा है आदमी

मुद्दतों से शह्र की ख़ामोशियाँ यह कह रहीं
आज कल भेड़ों की सुहबत कर रहा है आदमी