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"प्यारे किस के लिये लिखते हो / नवीन सी. चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर

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तुम लिखते हो, में पढता हूं, मैं कहता हूं, तुम सुनते हो<br />
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थोङा सा भी वक्त मिले तो, आपस मैं होती हैं बातें
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कैसे दिन गुजरे हैं तेरे, कैसे काटीं मैं ने रातें
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आगे बात बढे तब तक तो, रात गुजर जाती है सहसा
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पूछे हर कोई खुद से, वो जीता है - क्यों जीता है<br />
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सब को छोङो, खुद की सोचो, मानो जो तुम बात हमारी
गुस्सा क्यों खा जाता है, और अश्कों को क्यों पीता है<br />
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खोई खोई आखें, उखङी सांसें, बिखरे सपने क्यों<br />
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नास्तिक भी आफत आने पर, लगे राम को जपने क्यों<br />
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उसको क्यों मालूम नहीं हैं, अपने फर्ज औ अपने हक
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वैज्ञानिक युग में भी, एक पहेली है ये जीवन क्यों
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मानव का मानस मन्दिर, बस जीर्ण रहा और शीर्ण रहा
आपस में अपना ज्ञान परस्पर बाँट, बनें हम विज्ञानी<br />
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आधी - आधी बात, तुम्हारी समझ नहीं आती हैं ना?
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मंशा अपनी है यही फकत, हठ कहो इसे, या मनमानी
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17:51, 30 अगस्त 2011 के समय का अवतरण

तुम लिखते हो, में पढता हूं, मैं कहता हूं, तुम सुनते हो
मुझसे मेरा अन्तस पूछे, प्यारे किस के लिये लिखते हो

कौन करेगा मूल्यांकन, इस परिश्रम का, जो मात्र अकिंचन
कौन करेगा बैठ के पल भर, लिखी हैं उन बातों पे चिन्तन
किसको है फुर्सत, जो आ कर, बात तुम्हारे मन की पूछे
सुने, समझ कर, समझाने को, फिरता डोले कूचे - कूचे

थोङा सा भी वक्त मिले तो, आपस मैं होती हैं बातें
कैसे दिन गुजरे हैं तेरे, कैसे काटीं मैं ने रातें
आगे बात बढे तब तक तो, रात गुजर जाती है सहसा
हाल सुबह का रातों जैसा, फिर रातों का वही सुबह सा

ऐसे में क्या खाक सुनेगा, आम आदमी बात तुम्हारी
सब को छोङो, खुद की सोचो, मानो जो तुम बात हमारी
इतनी सीधी सच्ची बात, बताने पर ही जान सका मैं
अपनी और जमाने भर की, सूरत को पहचान सका मैं

सत्य! अकिंचन श्रम है मेरा, सत्य! न है कोई अभिलाषा
अभिलाषा तो बस इतनी है, जन जन में जागे जिज्ञासा
पूछे हर कोई खुद से, वो जीता है - क्यों जीता है
गुस्सा क्यों खा जाता है, और अश्कों को क्यों पीता है

उसको क्यों मालूम नहीं है, मानव की पहचान है क्या
जङ है क्या, चेतन है क्या, ये जिस्म है क्या और जान है क्या
कुदरत से क्यों दूर दूर है, कृत्रिमता का दीवाना
अपने ही घर के अन्दर वो, आज हु आ क्यों बेगाना

उसको क्यों मालूम नहीं हैं, अपने फर्ज औ अपने हक
कदम बढाने से पहले ही, आखिर क्यों जाता है थक
खोई खोई आखें, उखङी सांसें, बिखरे सपने क्यों
नास्तिक भी आफत आने पर, लगे राम को जपने क्यों

सार्वभौम है यदि मनुष्य, तो ईश्वर का आराधन क्यों
वैज्ञानिक युग में भी, एक पहेली है ये जीवन क्यों
तन तो बहुत तराशा हमने, लेकिन मन संकीर्ण रहा
मानव का मानस मन्दिर, बस जीर्ण रहा और शीर्ण रहा

आधी - आधी बात, तुम्हारी समझ नहीं आती हैं ना?
आओ फिर से बन जायें, कुछ पल को हम तोता मैना
खुद से खुद के बारे में, कुछ खुल कर चर्चा आज करें
अद्यतन - पुरातन, मसलों - सिद्धान्तों पर चर्चा आज करें

आपस में अपना ज्ञान परस्पर बाँट, बनें हम विज्ञानी
मंशा अपनी है यही फकत, हठ कहो इसे, या मनमानी