"असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 3" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
|||
(4 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 7 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
− | |रचनाकार= | + | |रचनाकार=अज्ञेय |
}} | }} | ||
− | [[Category:लम्बी | + | [[Category:लम्बी रचना]] |
− | + | {{KKPageNavigation | |
− | + | |पीछे=असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 2 | |
− | + | |आगे=असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 4 | |
− | [[चित्र: | + | |सारणी=असाध्य वीणा / अज्ञेय |
− | + | }} | |
− | मैं सुनूँ, | + | [[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]] |
− | गुनूँ, | + | <poem> |
− | विस्मय से भर आँकू | + | मैं सुनूँ, |
− | तेरे अनुभव का एक-एक अन्त:स्वर | + | गुनूँ, |
− | तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय-- | + | विस्मय से भर आँकू |
− | गा तू : | + | तेरे अनुभव का एक-एक अन्त:स्वर |
− | तेरी लय पर मेरी साँसें | + | तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय-- |
− | भरें, पुरें, रीतें, विश्रान्ति पायें। | + | गा तू : |
− | "गा तू ! | + | तेरी लय पर मेरी साँसें |
− | यह वीणा रखी है : तेरा अंग -- अपंग। | + | भरें, पुरें, रीतें, विश्रान्ति पायें। |
− | किन्तु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित, | + | "गा तू ! |
− | रस-विद, | + | यह वीणा रखी है : तेरा अंग -- अपंग। |
− | तू गा : | + | किन्तु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित, |
− | मेरे अंधियारे अंतस में आलोक जगा | + | रस-विद, |
− | स्मृति का | + | तू गा : |
− | श्रुति का -- | + | मेरे अंधियारे अंतस में आलोक जगा |
− | + | स्मृति का | |
− | + | श्रुति का -- | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | तू गा, तू गा, तू गा, तू गा ! | |
− | + | " हाँ मुझे स्मरण है : | |
− | + | बदली -- कौंध -- पत्तियों पर वर्षा बूँदों की पटापट। | |
− | + | घनी रात में महुए का चुपचाप टपकना। | |
− | + | चौंके खग-शावक की चिहुँक। | |
− | + | शिलाओं को दुलारते वन-झरने के | |
− | जल | + | द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद। |
− | + | कुहरें में छन कर आती | |
− | + | पर्वती गाँव के उत्सव-ढोलक की थाप। | |
+ | गड़रिये की अनमनी बाँसुरी। | ||
+ | कठफोड़े का ठेका। फुलसुँघनी की आतुर फुरकन : | ||
+ | ओस-बूँद की ढरकन-इतनी कोमल, तरल, कि झरते-झरते | ||
− | + | [[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]] | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | मानो हरसिंगार का फूल बन गयी। | |
− | + | भरे शरद के ताल, लहरियों की सरसर-ध्वनि। | |
− | + | कूँजो की क्रेंकार। काँद लम्बी टिट्टिभ की। | |
− | + | पंख-युक्त सायक-सी हंस-बलाका। | |
− | + | चीड़-वनो में गन्ध-अन्ध उन्मद मतंग की जहाँ-तहाँ टकराहट | |
− | + | जल-प्रपात का प्लुत एकस्वर। | |
− | + | झिल्ली-दादुर, कोकिल-चातक की झंकार पुकारों की यति में | |
− | + | संसृति की साँय-साँय। | |
− | "मुझे स्मरण है | + | "हाँ मुझे स्मरण है : |
− | + | दूर पहाड़ों-से काले मेघों की बाढ़ | |
− | + | हाथियों का मानों चिंघाड़ रहा हो यूथ। | |
− | + | घरघराहट चढ़ती बहिया की। | |
− | + | रेतीले कगार का गिरना छ्प-छपाड़। | |
− | + | झंझा की फुफकार, तप्त, | |
− | + | पेड़ों का अररा कर टूट-टूट कर गिरना। | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ओले की कर्री चपत। | |
+ | जमे पाले-ले तनी कटारी-सी सूखी घासों की टूटन। | ||
+ | ऐंठी मिट्टी का स्निग्ध घास में धीरे-धीरे रिसना। | ||
+ | हिम-तुषार के फाहे धरती के घावों को सहलाते चुपचाप। | ||
+ | घाटियों में भरती | ||
+ | गिरती चट्टानों की गूंज -- | ||
+ | काँपती मन्द्र -- अनुगूँज -- साँस खोयी-सी, | ||
+ | धीरे-धीरे नीरव। | ||
+ | "मुझे स्मरण है | ||
+ | हरी तलहटी में, छोटे पेडो़ की ओट ताल पर | ||
+ | बँधे समय वन-पशुओं की नानाबिध आतुर-तृप्त पुकारें : | ||
+ | गर्जन, घुर्घुर, चीख, भूख, हुक्का, चिचियाहट। | ||
+ | कमल-कुमुद-पत्रों पर चोर-पैर द्रुत धावित | ||
+ | जल-पंछी की चाप। | ||
+ | थाप दादुर की चकित छलांगों की। | ||
+ | पन्थी के घोडे़ की टाप धीर। | ||
+ | अचंचल धीर थाप भैंसो के भारी खुर की। | ||
+ | [[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]] | ||
[[असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 4|अगला भाग >>]] | [[असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 4|अगला भाग >>]] | ||
+ | </poem> |
11:11, 3 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण
मैं सुनूँ,
गुनूँ,
विस्मय से भर आँकू
तेरे अनुभव का एक-एक अन्त:स्वर
तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय--
गा तू :
तेरी लय पर मेरी साँसें
भरें, पुरें, रीतें, विश्रान्ति पायें।
"गा तू !
यह वीणा रखी है : तेरा अंग -- अपंग।
किन्तु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित,
रस-विद,
तू गा :
मेरे अंधियारे अंतस में आलोक जगा
स्मृति का
श्रुति का --
तू गा, तू गा, तू गा, तू गा !
" हाँ मुझे स्मरण है :
बदली -- कौंध -- पत्तियों पर वर्षा बूँदों की पटापट।
घनी रात में महुए का चुपचाप टपकना।
चौंके खग-शावक की चिहुँक।
शिलाओं को दुलारते वन-झरने के
द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद।
कुहरें में छन कर आती
पर्वती गाँव के उत्सव-ढोलक की थाप।
गड़रिये की अनमनी बाँसुरी।
कठफोड़े का ठेका। फुलसुँघनी की आतुर फुरकन :
ओस-बूँद की ढरकन-इतनी कोमल, तरल, कि झरते-झरते
मानो हरसिंगार का फूल बन गयी।
भरे शरद के ताल, लहरियों की सरसर-ध्वनि।
कूँजो की क्रेंकार। काँद लम्बी टिट्टिभ की।
पंख-युक्त सायक-सी हंस-बलाका।
चीड़-वनो में गन्ध-अन्ध उन्मद मतंग की जहाँ-तहाँ टकराहट
जल-प्रपात का प्लुत एकस्वर।
झिल्ली-दादुर, कोकिल-चातक की झंकार पुकारों की यति में
संसृति की साँय-साँय।
"हाँ मुझे स्मरण है :
दूर पहाड़ों-से काले मेघों की बाढ़
हाथियों का मानों चिंघाड़ रहा हो यूथ।
घरघराहट चढ़ती बहिया की।
रेतीले कगार का गिरना छ्प-छपाड़।
झंझा की फुफकार, तप्त,
पेड़ों का अररा कर टूट-टूट कर गिरना।
ओले की कर्री चपत।
जमे पाले-ले तनी कटारी-सी सूखी घासों की टूटन।
ऐंठी मिट्टी का स्निग्ध घास में धीरे-धीरे रिसना।
हिम-तुषार के फाहे धरती के घावों को सहलाते चुपचाप।
घाटियों में भरती
गिरती चट्टानों की गूंज --
काँपती मन्द्र -- अनुगूँज -- साँस खोयी-सी,
धीरे-धीरे नीरव।
"मुझे स्मरण है
हरी तलहटी में, छोटे पेडो़ की ओट ताल पर
बँधे समय वन-पशुओं की नानाबिध आतुर-तृप्त पुकारें :
गर्जन, घुर्घुर, चीख, भूख, हुक्का, चिचियाहट।
कमल-कुमुद-पत्रों पर चोर-पैर द्रुत धावित
जल-पंछी की चाप।
थाप दादुर की चकित छलांगों की।
पन्थी के घोडे़ की टाप धीर।
अचंचल धीर थाप भैंसो के भारी खुर की।
अगला भाग >>