भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 3" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 9: पंक्ति 9:
 
|सारणी=असाध्य वीणा / अज्ञेय
 
|सारणी=असाध्य वीणा / अज्ञेय
 
}}
 
}}
 +
[[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]]
 +
<poem>
 +
मैं सुनूँ,
 +
गुनूँ,
 +
विस्मय से भर आँकू
 +
तेरे अनुभव का एक-एक अन्त:स्वर
 +
तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय--
 +
गा तू :
 +
तेरी लय पर मेरी साँसें
 +
भरें, पुरें, रीतें, विश्रान्ति पायें।
 +
"गा तू !
 +
यह वीणा रखी है : तेरा अंग -- अपंग।
 +
किन्तु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित,
 +
रस-विद,
 +
तू गा :
 +
मेरे अंधियारे अंतस में आलोक जगा
 +
स्मृति का
 +
श्रुति का -- 
  
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]
+
तू गा, तू गा, तू गा, तू गा ! 
  
मैं सुनूँ,<br>
+
" हाँ मुझे स्मरण है :  
गुनूँ,<br>
+
बदली -- कौंध -- पत्तियों पर वर्षा बूँदों की पटापट।
विस्मय से भर आँकू<br>
+
घनी रात में महुए का चुपचाप टपकना।
तेरे अनुभव का एक-एक अन्त:स्वर<br>
+
चौंके खग-शावक की चिहुँक।
तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय--<br>
+
शिलाओं को दुलारते वन-झरने के
गा तू :<br>
+
द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद।
तेरी लय पर मेरी साँसें<br>
+
कुहरें में छन कर आती
भरें, पुरें, रीतें, विश्रान्ति पायें।<br>
+
पर्वती गाँव के उत्सव-ढोलक की थाप।
"गा तू !<br>
+
गड़रिये की अनमनी बाँसुरी।
यह वीणा रखी है : तेरा अंग -- अपंग।<br>
+
कठफोड़े का ठेका। फुलसुँघनी की आतुर फुरकन :
किन्तु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित,<br>
+
ओस-बूँद की ढरकन-इतनी कोमल, तरल, कि झरते-झरते 
रस-विद,<br>
+
तू गा :<br>
+
मेरे अंधियारे अंतस में आलोक जगा<br>
+
स्मृति का<br>
+
श्रुति का --<br><br>
+
  
तू गा, तू गा, तू गा, तू गा !<br><br>
+
[[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]] 
  
" हाँ मुझे स्मरण है :<br>
+
मानो हरसिंगार का फूल बन गयी।
बदली -- कौंध -- पत्तियों पर वर्षा बूँदों की पटापट।<br>
+
भरे शरद के ताल, लहरियों की सरसर-ध्वनि।
घनी रात में महुए का चुपचाप टपकना।<br>
+
कूँजो की क्रेंकार। काँद लम्बी टिट्टिभ की।
चौंके खग-शावक की चिहुँक।<br>
+
पंख-युक्त सायक-सी हंस-बलाका।
शिलाओं को दुलारते वन-झरने के<br>
+
चीड़-वनो में गन्ध-अन्ध उन्मद मतंग की जहाँ-तहाँ टकराहट
द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद।<br>
+
जल-प्रपात का प्लुत एकस्वर।
कुहरें में छन कर आती<br>
+
झिल्ली-दादुर, कोकिल-चातक की झंकार पुकारों की यति में
पर्वती गाँव के उत्सव-ढोलक की थाप।<br>
+
संसृति की साँय-साँय। 
गड़रिये की अनमनी बाँसुरी।<br>
+
कठफोड़े का ठेका। फुलसुँघनी की आतुर फुरकन :<br>
+
ओस-बूँद की ढरकन-इतनी कोमल, तरल, कि झरते-झरते<br><br>
+
  
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]<br><br>
+
"हाँ मुझे स्मरण है :  
 +
दूर पहाड़ों-से काले मेघों की बाढ़
 +
हाथियों का मानों चिंघाड़ रहा हो यूथ।
 +
घरघराहट चढ़ती बहिया की।
 +
रेतीले कगार का गिरना छ्प-छपाड़।
 +
झंझा की फुफकार, तप्त,
 +
पेड़ों का अररा कर टूट-टूट कर गिरना। 
  
मानो हरसिंगार का फूल बन गयी।<br>
+
ओले की कर्री चपत।  
भरे शरद के ताल, लहरियों की सरसर-ध्वनि।<br>
+
जमे पाले-ले तनी कटारी-सी सूखी घासों की टूटन।  
कूँजो की क्रेंकार। काँद लम्बी टिट्टिभ की।<br>
+
ऐंठी मिट्टी का स्निग्ध घास में धीरे-धीरे रिसना।  
पंख-युक्त सायक-सी हंस-बलाका।<br>
+
हिम-तुषार के फाहे धरती के घावों को सहलाते चुपचाप।  
चीड़-वनो में गन्ध-अन्ध उन्मद मतंग की जहाँ-तहाँ टकराहट<br>
+
घाटियों में भरती  
जल-प्रपात का प्लुत एकस्वर।<br>
+
गिरती चट्टानों की गूंज --  
झिल्ली-दादुर, कोकिल-चातक की झंकार पुकारों की यति में<br>
+
काँपती मन्द्र -- अनुगूँज -- साँस खोयी-सी,  
संसृति की साँय-साँय।<br><br>
+
धीरे-धीरे नीरव।
 
+
"हाँ मुझे स्मरण है :<br>
+
दूर पहाड़ों-से काले मेघों की बाढ़<br>
+
हाथियों का मानों चिंघाड़ रहा हो यूथ।<br>
+
घरघराहट चढ़ती बहिया की।<br>
+
रेतीले कगार का गिरना छ्प-छपाड़।<br>
+
झंझा की फुफकार, तप्त,<br>
+
पेड़ों का अररा कर टूट-टूट कर गिरना।<br><br>
+
 
+
ओले की कर्री चपत।<br>
+
जमे पाले-ले तनी कटारी-सी सूखी घासों की टूटन।<br>
+
ऐंठी मिट्टी का स्निग्ध घास में धीरे-धीरे रिसना।<br>
+
हिम-तुषार के फाहे धरती के घावों को सहलाते चुपचाप।<br>
+
घाटियों में भरती<br>
+
गिरती चट्टानों की गूंज --<br>
+
काँपती मन्द्र -- अनुगूँज -- साँस खोयी-सी,<br>
+
धीरे-धीरे नीरव।<br><br>
+
 
+
"मुझे स्मरण है<br>
+
हरी तलहटी में, छोटे पेडो़ की ओट ताल पर<br>
+
बँधे समय वन-पशुओं की नानाबिध आतुर-तृप्त पुकारें :<br>
+
गर्जन, घुर्घुर, चीख, भूख, हुक्का, चिचियाहट।<br>
+
कमल-कुमुद-पत्रों पर चोर-पैर द्रुत धावित<br>
+
जल-पंछी की चाप।<br>
+
थाप दादुर की चकित छलांगों की।<br>
+
पन्थी के घोडे़ की टाप धीर।<br>
+
अचंचल धीर थाप भैंसो के भारी खुर की।<br><br>
+
 
+
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]<br><br>
+
  
 +
"मुझे स्मरण है
 +
हरी तलहटी में, छोटे पेडो़ की ओट ताल पर
 +
बँधे समय वन-पशुओं की नानाबिध आतुर-तृप्त पुकारें :
 +
गर्जन, घुर्घुर, चीख, भूख, हुक्का, चिचियाहट।
 +
कमल-कुमुद-पत्रों पर चोर-पैर द्रुत धावित
 +
जल-पंछी की चाप।
 +
थाप दादुर की चकित छलांगों की।
 +
पन्थी के घोडे़ की टाप धीर।
 +
अचंचल धीर थाप भैंसो के भारी खुर की। 
  
 +
[[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]] 
  
 
[[असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 4|अगला भाग >>]]
 
[[असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 4|अगला भाग >>]]
 +
</poem>

11:11, 3 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण

Vichitra Veena1.jpg

मैं सुनूँ,
गुनूँ,
विस्मय से भर आँकू
तेरे अनुभव का एक-एक अन्त:स्वर
तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय--
गा तू :
तेरी लय पर मेरी साँसें
भरें, पुरें, रीतें, विश्रान्ति पायें।
"गा तू !
यह वीणा रखी है : तेरा अंग -- अपंग।
किन्तु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित,
रस-विद,
तू गा :
मेरे अंधियारे अंतस में आलोक जगा
स्मृति का
श्रुति का --

तू गा, तू गा, तू गा, तू गा !

" हाँ मुझे स्मरण है :
बदली -- कौंध -- पत्तियों पर वर्षा बूँदों की पटापट।
घनी रात में महुए का चुपचाप टपकना।
चौंके खग-शावक की चिहुँक।
शिलाओं को दुलारते वन-झरने के
द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद।
कुहरें में छन कर आती
पर्वती गाँव के उत्सव-ढोलक की थाप।
गड़रिये की अनमनी बाँसुरी।
कठफोड़े का ठेका। फुलसुँघनी की आतुर फुरकन :
ओस-बूँद की ढरकन-इतनी कोमल, तरल, कि झरते-झरते

Vichitra Veena1.jpg

मानो हरसिंगार का फूल बन गयी।
भरे शरद के ताल, लहरियों की सरसर-ध्वनि।
कूँजो की क्रेंकार। काँद लम्बी टिट्टिभ की।
पंख-युक्त सायक-सी हंस-बलाका।
चीड़-वनो में गन्ध-अन्ध उन्मद मतंग की जहाँ-तहाँ टकराहट
जल-प्रपात का प्लुत एकस्वर।
झिल्ली-दादुर, कोकिल-चातक की झंकार पुकारों की यति में
संसृति की साँय-साँय।

"हाँ मुझे स्मरण है :
दूर पहाड़ों-से काले मेघों की बाढ़
हाथियों का मानों चिंघाड़ रहा हो यूथ।
घरघराहट चढ़ती बहिया की।
रेतीले कगार का गिरना छ्प-छपाड़।
झंझा की फुफकार, तप्त,
पेड़ों का अररा कर टूट-टूट कर गिरना।

ओले की कर्री चपत।
जमे पाले-ले तनी कटारी-सी सूखी घासों की टूटन।
ऐंठी मिट्टी का स्निग्ध घास में धीरे-धीरे रिसना।
हिम-तुषार के फाहे धरती के घावों को सहलाते चुपचाप।
घाटियों में भरती
गिरती चट्टानों की गूंज --
काँपती मन्द्र -- अनुगूँज -- साँस खोयी-सी,
धीरे-धीरे नीरव।

"मुझे स्मरण है
हरी तलहटी में, छोटे पेडो़ की ओट ताल पर
बँधे समय वन-पशुओं की नानाबिध आतुर-तृप्त पुकारें :
गर्जन, घुर्घुर, चीख, भूख, हुक्का, चिचियाहट।
कमल-कुमुद-पत्रों पर चोर-पैर द्रुत धावित
जल-पंछी की चाप।
थाप दादुर की चकित छलांगों की।
पन्थी के घोडे़ की टाप धीर।
अचंचल धीर थाप भैंसो के भारी खुर की।

Vichitra Veena1.jpg

अगला भाग >>