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"तुम्हारी सोच के सांचे में ढल भी सकता था / राजीव भरोल 'राज़'" के अवतरणों में अंतर

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18:15, 3 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण


तुम्हारी सोच के साँचे में ढल भी सकता था,
वो आदमी ही था इक दिन बदल भी सकता था.

हमारा एक ही रस्ता था एक ही मंजिल,
वो चाहता तो मेरे साथ चल भी सकता था.

ज़मीर की सभी बातें जो मानने लगते,
हमारे हाथ से मौका निकल भी सकता था.

लहू था सर्द वहाँ पर सभी का मुद्दत से,
अगर तुम आंच दिखाते उबल भी सकता था.

चिराग मैंने बुझाये थे अपने हाथों से,
मैं जानता हूँ मेरा हाथ जल भी सकता था.

हर इक सफर में जो चुभता था पाँव में मेरे,
मैं चाहता तो वो काँटा निकल भी सकता था.

उठा के चाँद को थाली में उसकी रख देते,
ज़रा -सी बात थी बच्चा बहल भी सकता था.