भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आँखों से दूर, सुबह के तारे चले गए / शकील बदायूँनी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: आंखों से दूर सुब्ह के तारे चले गए नींद आ गई तो ग़म के नज़ारे चले गए …) |
(कोई अंतर नहीं)
|
16:24, 4 सितम्बर 2011 का अवतरण
आंखों से दूर सुब्ह के तारे चले गए नींद आ गई तो ग़म के नज़ारे चले गए
दिल था किसी की याद में मसरूफ़ और हम शीशे में ज़िन्दगी को उतारे चले गए
अल्लाह रे बेखुदी कि हम उनके रू-ब-रू बे-अख़्तियार उनको पुकारे चले गए
मुश्किल था कुछ तो इश्क़ की बाज़ी का जीतना कुछ जीतने के ख़ौफ़ से हारे चले गए
नाकामी-ए-हयात का करते भी क्या गिला दो दिन गुज़ारना थे, गुज़ारे चले गए
जल्वे कहां जो ज़ौके़-तमाशा नहीं ‘शकील’ नज़रें चली गईं तो नज़ारे चले गए