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"बरसों जुनूँ सहरा सहरा भटकाता है / शारिक़ कैफ़ी" के अवतरणों में अंतर
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बरसों जुनूँ सहरा सहरा भटकाता है
घर में रहना यूँ ही नहीं आ जाता है
प्यास और धूप के आदी हो जाते हैं हम
जब तक दश्त का खेल समझ में आता है
आदत थी सो पुकार लिया तुमको वरना
इतने क़र्ब में कौन किसे याद आता है
मौत भी इक हल है तो मसाइल का लेकिन
दिल ये सहुलत लेते हुए घबराता है
इक तुम ही तो गवाह हो मेरे होने का
आइना तो अब भी मुझे झुठलाता है
उफ़ ये सजा ये तो कोई इन्साफ नहीं
कोई मुझे मुजरिम ही नहीं ठहराता है
कैसे कैसे गुनाह किये हैं ख़्वाबों में
क्या ये भी मेरे ही हिसाब में आता है