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14:56, 7 सितम्बर 2011 का अवतरण
मेरी दादी की आँखों पर होता है
मोटा धुंधले शीशों वाला चश्मा
जिसकी कमानी में एक डोर बंधी है
जाती है जो पीछे की ओर
दूसरी कमानी की तरफ
और बाध देती है दादी के पुरे सर को
उसके अन्दर से पुरे घर को देखती हैं दादी की आँखे
कितनी बार कहा इस लड़के से
सूरज नारायण को उगते ही जल दे दिया कर,
अन्न छु लिया कर,
दातून कर लिया कर,
रोज़ एक ही प्लास्टिक मुह में डाल लेता है
फिर थककर कहती कि `जुग जमाना बदल गयल ह`
दादी का चश्मा
मेरी दादी के पास होती है एक छड़ी
ब्रज के बांसों वाली, खोखली नहीं
जिसके सहारे लगा आती हैं
पुरे घर का चक्कर !
देख आती है गैया को
दे आती हैं अपने हिस्से का कुछ भोजन
इसी डंडे के सहारे
जैसे हांक आती हैं आधुनिकता को
दादी कि छड़ी
मेरी दादी के पास होता है एक हुक्का
जिसपे चढ़ती है कुम्हार कि चीलम,
चूल्हे की आग,
बनिए का तम्बाकू,
और हाँ बढई का शिल्प,
घुडघुडा कर जब दादी इसे पीती थी
कितनी उर्जा मिलती थी उनको
दादी का हुक्का
दादी की मृत्तयु पर टिखटी के सिरहाने
हमने लाकर रख दिया था
दादी का चश्मा ,
दादी की छड़ी,
और दादी का हुक्का
और लेजाकर वो सब विसर्जित कर दिया
सरयू में
जिसके सहारे दादी लड़ती थी
बाज़ार और बाजारुपन से !