भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आजकल तो रास्ता अंधे भी दिखलाने लगे /वीरेन्द्र खरे अकेला" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: आज कल तो रास्ता अँधे भी दिखलाने लगे लो अँधेरे रौशनी का मर्म समझान…)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
 +
|संग्रह=शेष बची चौथाई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
 +
}}
 +
{{KKCatGhazal}}
 +
<poem>
 
आज कल तो रास्ता अँधे भी दिखलाने लगे
 
आज कल तो रास्ता अँधे भी दिखलाने लगे
 
लो अँधेरे रौशनी का मर्म समझाने लगे
 
लो अँधेरे रौशनी का मर्म समझाने लगे
पंक्ति 18: पंक्ति 25:
 
   
 
   
 
ऐ 'अकेला' अब तो बेशर्मी की भी हद हो गई
 
ऐ 'अकेला' अब तो बेशर्मी की भी हद हो गई
जन्म के झूठे हमें सच्चाई सिखलाने लगे
+
जन्म के झूठे हमें सच्चाई सिखलाने लगे</poem>

15:49, 7 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण

आज कल तो रास्ता अँधे भी दिखलाने लगे
लो अँधेरे रौशनी का मर्म समझाने लगे
 
मंदिरो-मस्जिद में हर दिन भीड़ बढ़ती जा रही
इम्तिहानों के दिवस नज़दीक जो आने लगे
 
मेरे बेटे नौकरी तुझको तो मिलने से रही
खोल गुमटी पान की बाबू जी समझाने लगे
 
हैं विवश हम आप पर विश्वास करने के लिए
व्यर्थ ही क़समों पे क़समें आप क्यों खाने लगे
 
कैसे समझाएँ परिंदों को शिकारी हम नहीं
दान के दाने भी वो खाने से कतराने लगे
 
ये न भूलो, हमने ही तुमको बग़ल में दी जगह
यार तुम तो बैठते ही हमको धकियाने लगे
 
ऐ 'अकेला' अब तो बेशर्मी की भी हद हो गई
जन्म के झूठे हमें सच्चाई सिखलाने लगे