भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अजनबी खुद को लगे हम / श्रद्धा जैन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 14: पंक्ति 14:
 
तुम से मिलकर जब बने हम   
 
तुम से मिलकर जब बने हम   
  
 +
चाँद दरिया में खड़ा था
 +
आसमाँ तकते रहे हम
 +
 
सुबह को आँखों में रख कर  
 
सुबह को आँखों में रख कर  
 
रात भर पल - पल जले हम
 
रात भर पल - पल जले हम
 +
 +
खो गए हम भीड़ में जब
 +
फिर बहुत ढूँढे  गए हम
  
 
इस ज़मीं से आसमां तक
 
इस ज़मीं से आसमां तक
 
था जुनूँ उलझे रहे हम  
 
था जुनूँ उलझे रहे हम  
 
खो गए हम भीड़ में जब
 
फिर बहुत ढूँढे  गए हम
 
  
 
जीस्त के रस्ते बहुत थे  
 
जीस्त के रस्ते बहुत थे  
पंक्ति 28: पंक्ति 31:
 
लफ्ज़ जब उरियाँ हुए तो   
 
लफ्ज़ जब उरियाँ हुए तो   
 
फिर बहुत रुसवा हुए हम  
 
फिर बहुत रुसवा हुए हम  
 
चाँद दरिया में खड़ा था
 
आसमाँ तकते रहे  हम
 
  
 
जागने का ख़्वाब ले कर
 
जागने का ख़्वाब ले कर

16:09, 7 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण

अजनबी खुद को लगे हम
इस कदर तन्हा हुए हम

उम्र भर इस सोच में थे
क्या कभी सोचे गए हम

खूबसूरत ज़िंदगी थी
तुम से मिलकर जब बने हम

चाँद दरिया में खड़ा था
आसमाँ तकते रहे हम
 
सुबह को आँखों में रख कर
रात भर पल - पल जले हम

खो गए हम भीड़ में जब
फिर बहुत ढूँढे गए हम

इस ज़मीं से आसमां तक
था जुनूँ उलझे रहे हम

जीस्त के रस्ते बहुत थे
हर तरफ रोके गए हम

लफ्ज़ जब उरियाँ हुए तो
फिर बहुत रुसवा हुए हम

जागने का ख़्वाब ले कर
देर तक सोते रहे हम

तेरे सच को पढ़ लिया था
बस इसी खातिर मिटे हम