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"आंखों देखा हाल / हरीश बी० शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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संबंधों के सलीब पर
भावनाओं का अभिप्राय ढूंढ़ते
शब्दों की टीस
स्त्रोत विहीन टपकता दर्द
और रचाव।
कैसे होती है रचना
मैं सच, तुम मुझे दोषी ठहरा सकते हो।
मैंने ही तो सुनाया है
तुम्हें आंखों-देखा हाल।