भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मैं देख रहा हूँ / त्रिपुरारि कुमार शर्मा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा }} {{KKCatKavita}} <Poem> मैं देख रहा ह…)
 
(कोई अंतर नहीं)

23:08, 10 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण

मैं देख रहा हूँ…
बिल्कुल अभी-अभी थमी है बारिश
फूलों को चूमती हुई पानी की बूँदें
पत्तियों का भीगा हुआ गीला बदन
किसी धूँधली तस्वीर को उघाड़ रहे हैं
मैं देख रहा हूँ…
रात के सीने से ढलका हुआ आँचल
किसी पाँव में खनकती हुई पायल
पत्तियों में पनाह ढूँढ़ता हुआ चाँद
पेड़ की बाहों में लचकती हुई चाँदनी
मैं देख रहा हूँ…
किसी झील में उतरती हुई तुम
सफ़ेद संग की तरह तुम्हारी देह
अजंता की-सी बनावट लिए हुए
अपनी ही गंध में गुम, खोई हुई
मैं देख रहा हूँ…
तुम्हारे खुले हुए लहराते हुए बाल
बालों में कंधी-सी करती हुई हवा
मदहोश करने वाली तुम्हारी आँखें
और आँखों में महका हुआ काजल
मैं देख रहा हूँ…
फूलों से भी नाज़ुक तुम्हारे गाल
कुछ और गुलाबी हुए हैं शर्म से
दाँतों के निशान वाले होंठ यानि
आपस में लिपटे हुए दो-दो गुलाब
मैं देख रहा हूँ…
कमरे में किताबों को सजाती तुम
और गले से लटकता हुआ लॉकेट
बार-बार तुमको करता है परेशान
कई बार सोचा कि हटा दूँ इसको
मैं देख रहा हूँ…
अजीब अदा से मुस्कुराती हुई तुम
ज़रा रुक कर, पास आती हुई तुम
कदम बढ़ाना चाहता हूँ अचानक
रुक जाता हूँ जाने क्या सोच कर
मैं देख रहा हूँ…
लैपटॉप पर टाइप करता हुआ मैं
अपनी बाहों का हार पहनाती तुम
मेरी पीठ पर कुछ ‘किस’ के धब्बे
और तुम्हारी उंगलियों के निशान
मैं देख रहा हूँ…
सफ़ेद बिस्तर पर लेटी हुई तुम
सामने कुर्सी में बैठा हुआ-सा मैं
धीरे-धीरे पास आते हुए हमदोनों
फिर एक हो जाते हुए हमदोनों
मैं देख रहा हूँ…
नर्म बदन पर उंगलियों का ‘वॉक’
वो गुदगुदी, वो हँसी, वो छुअन
तुम्हारी कमर के किनारे बैठकर
मेरा जान-बूझकर रूठ जाना भी
मैं देख रहा हूँ…
एक खुशबू में नहाया हुआ कमरा
कमरे में सुलगते-हाँफते हुए हम
एक-दूसरे में खुद की तलाश करते
एक-दूसरे में खोता हुआ-सा वजूद
मैं देख रहा हूँ…
उलझे बालों को संवारती हुई तुम
ठीक आईना के सामने खड़ी होके
अपने कपड़ों को ठीक करती तुम
होंठों पर मुस्कान की चादर लपेटे
मैं देख रहा हूँ…
मुझको गले से लगा लेना तुम्हारा
घर जाने की इजाज़त माँगना भी
दोबारा आने की चाहत और वादा
फिर घड़ी की ओर इशारा करना
मैं देख रहा हूँ…
रूह को बदन से अलग होते हुए
मेरी आँखों को पहली दफ़ा रोते हुए
फिर हथेली पर तुम्हारा हाथ रखना
जैसे याद में दिल को साथ रखना
मैं देख रहा हूँ…
कि रात अब ख़त्म होने वाली है
तारे ऊंघते हैं सुबह होने वाली है
कुछ देर में सब हो जाएगा रोशन
सूरज निकलेगा तुम्हारी आँख से