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20:13, 13 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण
सूरज के डूबने
और उगने के बीच
मैं तैयार कर लेना चाहता हूँ
रौशनी के मुट्ठी भर बीज
जिन्हें सवेरा होते ही
दफना सकूँ मैं
धरती के सबसे उर्वर हिस्से में
गोद लेना चाहता हूँ
कविता के कुछ नए शब्द
उम्मीद और ताकत से भरे हुए
जिन्हें आने वाली पीढ़ी
की नर्म हथेली पर
छोड़ सकूँ कंचन पाँख कि तरह
रो लेना चाहता हूँ
कुछ और गर्म आंसू
इससे पहले कि
दुनिया के सारे दुःख
सारी चिंताएं
और
कविताओं के लिए
सारे विषय समाप्त हो जाएँ...