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"मेरा ज़नूने-शौक है, या हद है प्यार की / पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"" के अवतरणों में अंतर
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माना कि शोभा रखता है, कैक्टस का फ़ूल भी | माना कि शोभा रखता है, कैक्टस का फ़ूल भी | ||
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कुछ भी कहूं या चुप रहूं आफ़त में जान है | कुछ भी कहूं या चुप रहूं आफ़त में जान है | ||
रस्सी भी "आज़र" बट चुकी गर्देन पे दार की</poem> | रस्सी भी "आज़र" बट चुकी गर्देन पे दार की</poem> |
09:22, 16 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण
मेरा ज़नूने-शौक है, या हद है प्यार की
तेरे बिना सूनी लगे, रौनक बहार की
आते नहीं हैं वो कभी, महफ़िल में वक़्त से
आदत सी हमको पड़ गई है इंतज़ार की
सूरज ढला, तो आसमाँ की, रुत बदल गई
पक्षी कहानी लिख गए, अपनी कतार की
माना कि शोभा रखता है, कैक्टस का फ़ूल भी
लेकिन चुभन, महसूस की है, मैंने ख़ार की
कुछ भी कहूं या चुप रहूं आफ़त में जान है
रस्सी भी "आज़र" बट चुकी गर्देन पे दार की