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"उदासियाँ समेट ले किसी का अब तो मीत बन / पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"" के अवतरणों में अंतर

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ये ठीक है कि ज़िन्दगी को कल कि धुन में जी मगर
 
ये ठीक है कि ज़िन्दगी को कल कि धुन में जी मगर
कभी-कभी उदास हो कभी-कभी अतीत बन
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कभी-कभी   उदास   हो कभी-कभी अतीत   बन
  
तपन बहुत है प्यास में दहक रही है धूप-सी
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तपन बहुत है   प्यास   में दहक   रही है धूप-सी
बुझा दे दिल कि आग को मौहबब्तों कि शीत बन
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बुझा दे दिल कि आग   को मुहबब्तों कि शीत बन
 
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10:31, 16 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण


उदासियाँ समेट ले किसी का अब तो मीत बन
लहू से अपने गुल खिला हवा के लब पे गीत बन

बुझी-बुझी है ज़िन्दगी बुझे -बुझे हैं दोस्त भी
मगर न देख खोट अब कमल-सा झूम प्रीत बन

सभी यहाँ से जाएँगे गगन को अपने छोड़ कर
मगर अभी तो चाँद बन कि चाँदनी- सी रीत बन

ये ठीक है कि ज़िन्दगी को कल कि धुन में जी मगर
कभी-कभी उदास हो कभी-कभी अतीत बन

तपन बहुत है प्यास में दहक रही है धूप-सी
बुझा दे दिल कि आग को मुहबब्तों कि शीत बन