"लगी आग सीने में मेरे लगी है / पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"" के अवतरणों में अंतर
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19:17, 17 सितम्बर 2011 का अवतरण
लगी आग सीने में मेरे लगी है
बुझाता हूं लेकिन ये भड़की हुई है
लगा तुझको धोखा हकीकत यही है
लबों पे मेरे साफ़गोई जमी है
बुराई-बुराई नज़र आ रही है
भलाई पे लेकिन ये दुनिया टिकी है
गरजने से बादल बरसता कभी है
घटा बन के आता बरसता वही है
अभी बालपन की शरारत वही है
जवानी भी बचपन को कब भूलती है
पुरानी रिवायत को हमने है तोड़ा
कहानी जो लिक्खी नए दौर की है
उजाला सुबह का ये सूरज है लाया
सुहाना है मौसम हवा भी चली है
ये खुशबू का झोंका ये उपवन की रौनक
कली फ़ूल बन कर चमन में खिली है
गिरा के उठा दीं हैं उसने जो पलकें
लगी हर नज़र की उधर टकटकी है
सुनी उसकी बातें हैं देखा नहीं पर
हवा बे वजह कोई कैसे चली है
मुझे क्या हुआ है तुझे क्या बताऊं
अभी अपनी खुद को खबर कब मिली है
अभी तुम छुपा लो ये राज़े मुहब्बत
मगर हर नज़र देखो तुम पर टिकी है
कहां से मैं लाऊं वो जम-जम का पानी
हमारे ही हाथों क्या गंगा बची है
ज़रा सा छुआ था सुलगती सी निकली
वो शबनम से शोला अभी जो बनी है
अदाएं हैं तेरी अलग यह निराली
तू उतरी हुई क्या अजल से परी है
बुरा तब न मानू जो एसा न होता
हकुमत में तेरे मेरी कब चली है
किसी को कहेंगे बुरा सा लगेगा
नज़र को नज़र खुद हमारी लगी है
मदारी के डमरू ने जमघट लगाया
क्यूं आगे निकलने की सबको पड़ी है
जरा कौंधी बिजली हुआ यूं उजाला
लगा हमको सहरा में अपना कोई है
करें क्या भरोसा निगाहों का उनकी
है सूरत तो भोली बगल में छुरी है
भले काम कोई न बनता हो मेरा
मुकद्दर से अपने शिकायत न की है
कभी पूरी होती न हसरत जो मन की
ये सबसे बड़ी आदमी में कमी है
बढ़ा के कदम पीछे खीचों न जानम
तुम्हारे सहारे मेरी जिंदगी है
मैं रस्मों रिवाज़ों को कैसे निभाऊं
मेरी जिंदगी सादगी में ढली है
पता जब से हमको चला है हवस का
तभी से जहाँ में मची खलबली है
मुहब्बत की बातें किताबों में पढ़ लो
हकीकत से इनका न मतलब कोई है
अचानक हुआ हादसा इस नगर में
उठा कर नज़र देखो भगदड़ मची है
जरुरी नहीं बात उसकी हो सच्ची
बताओ तो मुझको ये किसने कही है
मुझे घूरते हो क्या देखा न पहले
न बदला है कुछ भी है सूरत वही है
भरोसा नहीं आज हमको किसी पर
भरोसे पे लेकिन ये दुनिया टिकी है
वही बात फ़िर से क्यूं कह दी है तुमने
जो खुद बात तुमको न अच्छी लगी है
ये पत्तझर का मौसम किसे रास आए
कली खिलती सावन में लगती भली है
चलो साथ मेरे जहां तक चलूं मैं
सफ़र में अभी तक अकेले कटी है
सफ़र तो सफ़र है सफ़र ही रहेगा
किसी को मुकम्मल क्या मंजिल मिली है
ये निकली नदी है पहाड़ी से लेकिन
समुंदर से जा कर के सीधी मिली है
मज़ा ले ले प्यारे नमक तू छिड़क ले
क्यामत भी आगे ही तेरे खड़ी है
किसे याद रक्खूं किसे भूल जाऊं
मुसीबत में किस-किस ने की दिल्लगी है
तुझे रास आई है महफ़िल की रौनक
अकेले में मेरी कटी जिंदगी है
नहीं नींद आती है सोना मैं चाहूं
करूं तो करूं क्या ये उलझन बड़ी है
नहीं काम आसां ये देखा है मैने
मना लूं मैं खुद को ये कोशिश भी की है
मिला हमको ख़त का ये उत्तर तो देखो
न तहज़ीब उसमें ज़रा सी कोई है
तुझे क्या पता शेइर कहते हैं कैसे
ग़ज़ल तुझको लिखने कि आफ़त पड़ी है
अलिफ़ ,बे ,ते, टे, से, से होता है हव्वा
न मतलब पता है कहावत पढ़ी है
अगर पूछना है सलीका भी सीखो
अदब मोल देखो न बिकता कभी है
नसीहत तो देना है आसान प्यारे
अमल खुद न करना ये आदत बुरी हैं
बुरी नज़रों वाले मुहं काला हो तेरा
कई बार हमने इबारत पढ़ी है
है ज़र्रानवाज़ी बड़ी मेहरबानी
हमेशा इनायत तुम्हारी रही है
अभी शाम होने में घंटो पड़े हैं
न जाने की तुझको क्यूं जल्दी पड़ी है
मुहब्बत को शर्तो से बेखोफ़ जकड़ा
इबादत मुहब्बत कि तुमने न की है
मुबारक हो तुझको ज़माने की खुशियां
मुझे अपने ग़म से न शिकवा कोई है
खुशी मन की होती है करते दिखावा
दिखावे ने करदी है सब गड़बड़ी है
बड़ी उलझने हैं यूं जीवन में यारों
तसल्ली खुदा ने किसी को न दी है
हवा का ये झोंका किधर से है आया
ये पूरब से ठंडी हवा कब चली है
छुपा ले छुपा ले ये चेहरा छुपा ले
तू जीवीत है मुझको तसल्ली यही है
चले आओ बेखौफ़ ये घर है तुम्हारा
तकल्लुफ़ न कोई यहां पे कोई है
अमीरी की बातें न हमसे करो तुम
गारीबों के बारे में सोचा कभी है
जबां को सम्भालों करो बात धीरे
पड़ोसी कि देखो वो खिड़की खुली है
बिका माल सस्ता तो सब ने खरीदा
न सोचा किसी ने क्यूं बोली लगी है
बता दो बता दो हमें तो बता दो
क्यूं पलकों पे आई ये कैसी नमी है
उठा है धुआं तो लगी आग होगी
नगर में दुहाई-दुहाई मची है
ये मुम्किन नहीं है तुझे भूल जाऊं
तेरी याद दिल में हमेशा रही है
जुदा क्यूं समझते हो अपने को हमसे
तुम्हारी खुशी में हमारी खुशी है
तुफ़ां जिंदगी में तो आते ही रहते
नहीं हौसलों की इधर भी कमी है
घटा बन के आई है बरसेगा बादल
मेरी छ्त पे बरसे ज़रूरी कोई है
तुम्हारी दुआओं का आलम है यारो
तभी मौत हमसे यूं डरके रही है
चलूं इस नगर से मैं बांधू ये बिस्तर
सफ़र जिंदगी में अभी ओर भी है
न कूचा ही मेरा न है कोई मंजिल
मैं जाऊं किधर को ये उलझन बड़ी है
सवाली खड़ा है तेरे दर के आगे
मगर इच्छा कोई न तुझसे रही है
पुरानी है आदत है उसका मुकरना
क्या मरने से पहले न जाती कभी है
न तर्के रिफ़ाक्त की बातें करो तुम
मुहब्बत में आगे कशिश कब बची है
ज़मी पे मचा है घमासान कितना
यूं अंबर कि तूने कभी सुध क्या ली है
अगर इश्क करना है खुल के करो तुम
ज़माने की परवाह से मुश्किल बढ़ी है
ये जुल्मो-सितम कब तक ढाते रहोगे
शराफ़त कि तुमने तो हद तोड़ दी है
नदी के किनारे क्या कश्ती लगेगी
हवांओ का रुख वैसे विपरीत ही है
मिलें सबको खुशियां ओर खुशहाल जीवन
तम्मना हमारी सदा ये रही है
वो हमको बुलाने में शरमा रहे हैं
नज़र उनकी लेकिन इधर ही टिकी है
बहुत देर तक यह सवेरा रहेगा
यही बात लेकर के चर्चा छिड़ी है
चिरागों को रौशन सभी हम करेंगे
मगर शकां स्थिर सी फ़िर भी बनी है
वो जाए न जाए ये उसकी है मर्जी
किसी को किसी की क्या परवाह पड़ी है
कदरदान कितने हैं इतना बता दो
यूं मरने से पहले कदर किसने की है
पुकारा जो दादी ने उत्तर मिला यह
अरी चुप भी हो जा क्यूँ पागल हुई है
किसी ने हवा को छुआ है भला क्या
छुए कोइ कैसे क्या देखी गई है
खफ़ा कोई होता है अपनी बला से
हमारी तरफ़ से न कोई कमी है
वही दर्दे गम है न पीछा ही छोडा
खुशी से भी गम को न राहत मिली है
चलूं नीदं आई है सोना है मुझको
कई बार आई और आकर उड़ी है
उभारो न इस बात को और आगे
बड़ी मुश्किलों से आगे दबी है
किया वार आंखे जो बंद करके मैने
पलट वार उल्टा य़ूं मुझपे पड़ी है
करो मौज़ मस्ती क्या रोना क्या धोना
यूं खुशियों कि आगे ही वैसे कमी है
किसी के गुजरने से पल भर का मातम
रुके जिंदगी कब ये चलते चली है
गया जो मुसाफ़िर न लौटा कभी वो
मगर आस में ये नज़र खोजती है
दुआ में असर है ये सब मानते हैं
इबादत कभी तुमने दिल से क्या की है
तू इल्ज़ाम मुझपे जो मर्ज़ी लगा दे
धुली दूध की खुद तू कितनी धुली है
सही को सही या सही को कहें क्या
क्या गुम्मबद से लौटी सदा सी सुनी है
चलो अब चलें धूप सिर पे बहुत सी
कदम दर कदम ये चढ़े जा रही है
सबर का ये प्याला मेरा भर चुका अब
मुझे बात तेरी हमेशा खली है
जहां से चला था वहीं लौट आया
कहानी भी खुद की वहीं से लिखी है
रही जिंदगी यूं मुसाफ़िर हो जैसे
बहुत सिर को पटका न मंजिल मिली है
वहीं पानी भरना यूं खड्डो का बनना
सडक को बनाने में कुछ तो कमी है
करामात उसकी निजामत भी उसकी
खुदा की ये हम पर इनायत रही है
मुझे रास आई है देखो फ़कीरी
न राजा ही बढ़ कर यूं मुझसा कोई है
मुकर्रर-मुकर्रर सभी कह रहे हैं
मगर ये ग़ज़ल तो चुराई हुई है
बहर से न खारिज़ बताना ग़ज़ल को
फ़ऊलुन , फ़ऊलुन , फ़ऊलुन सही है
निकम्मा क्यूं "आज़र" मुझे कह रहे हो
निकम्में ने पढ़ लो ग़ज़ल यह लिखी है