भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"लकीरें / त्रिपुरारि कुमार शर्मा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा }} {{KKCatKavita}} <Poem> बहुत नाराज़ ह…)
 
(कोई अंतर नहीं)

23:38, 17 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण

बहुत नाराज़ हैं नाज़ुक-सी ये रंगीन लकीरें
न तो आग़ाज़ है इनका नही अंज़ाम है कोई
ये यतीम भी नहीं हैं और न नाम है कोई
कितनी खुशरंग, खुबसूरत, खुशबूदार-सी हैं
जिन हाथों ने इनको प्यार से पैदा किया है
वो अंगुलियाँ इस बात से अंजान होंगी
हज़ारों शक्ल-सी इनमें उभरती-डूबती हैं
कुछ माज़ी, कुछ हाल, कुछ मुस्तक़बिल
जैसे बहता रहता है वक़्त का दरिया
किसी अफ़साने के दरीचे की मानिंद
उस टूटते-बिखरते हुए लम्हे की जानिब
जिसे मालूम है दर्द-ओ-अलम अपना
कहाँ जाए वो लेकर सारा ग़म अपना
उसकी आह का दुनिया में कोई तर्जुमा नहीं
ज़रा ग़ौर से देखो तो सारी चीखती हैं
बहुत नाराज़ हैं नाज़ुक-सी ये रंगीन लकीरें