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"माउण्ट आबू का सफ़र / त्रिपुरारि कुमार शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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00:10, 18 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण

सफ़र वो माउण्ट आबू का यूँ मुझको याद आता है

मैं अब भी देख सकता हूँ...
नीली बर्थ पर लेटी हुई लड़की
ज़रा सी नींद में डूबी हुई आँखें
किसी की याद में महकी हुई साँसें
ये सब हैं साथ में मेरे, हमसफ़र है

मैं अब भी देख सकता हूँ...
सुबह का वक़्त और आबू स्टेशन
ज़रा थक कर रूकी है ट्रेन भी
दिल्ली से नंगे पाँव दौड़ कर आई है
एक स्याह मंज़र सोच पर बिखरा हुआ है

मैं अब भी देख सकता हूँ...
एक डिज़ीटल कैमरा है हाथ में मेरे
बदन के लोच को मैं कर रहा हूँ क़ैद अब भी
अभी मुस्कान कोई टूटकर बिखरी है फ़र्श पर
नज़र की सिलवटों से ख़ुशबू आती है

मैं अब भी देख सकता हूँ...
वो मीडिया का बोरिंग बदरंग सेमिनार
हाँ, बहुत से लोगों ने अच्छा भी बोला है
एक शख़्स की आवाज़ सुनकर सो गई हो
तुम खुले मुँह सोती हुई अच्छी नहीं लगती

मैं अब भी देख सकता हूँ...
पतली सी इक सड़क पहाड़ों के दर्मियान
बहुत ऊँचे पे गहरे रंग में गाता हुआ गेंदा
और दूसरी ओर बड़ी गहरी सी खाई
मचलता हुआ झरना कितना ख़ूबसूरत है

मैं अब भी देख सकता हूँ...
अभी हँसते हुए दस-बारह बच्चे आदिवासी के
जिनके बदन को बित्ता भर कपड़ा नहीं है
ख़्वाहिश है कि उनका खींच ले फोटो कोई आकर
कैसे लिपट गये हैं मुझसे फोटो देखने को

मैं अब भी देख सकता हूँ...
बस में बैठे हुए साउथ इंडिया के लोग
जो मेरी ग़ज़ल सुनकर कर रहे हैं वाह-आह
कुछ बच्चे, कुछ बूढ़े, कुछ औरतें भी
कि मेरी उम्र का वहाँ पर कोई नहीं है

मैं अब भी देख सकता हूँ...
तुम्हारे हाथ में एक प्लेट खाने का
मेरी ख़ातिर लाईन में कब से खड़ी हो
मेरी भूख का तुम कितना ख़्याल रखती हो
मेरे एहसास का भी कुछ तुम्हें एहसास होता

मैं अब भी देख सकता हूँ...
मोबाईल पर किसी की कॉल आई है
गुलाबी होंठ पर लेकिन मेरी शिकायत है
कहा है तुमने ‘बहुत बदमाश है लड़का’
नमस्ते बोला है मैंने तुम्हारी मम्मी को

मैं अब भी देख सकता हूँ...
खड़ी हो तुम सरकती ट्रेन के दरवाज़े पर
ज़रा सी दूरी पर वहीं मैं भी खड़ा हूँ
दो थरथराते होंठों ने एक ‘थैंक्स’ बोला है
कुछ देर रूककर मैंने कहा ‘इतनी मुहब्बत’!