"सफ़ेद अफ़साना / त्रिपुरारि कुमार शर्मा" के अवतरणों में अंतर
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एक मुलायम-सी सुगबुगाहट | एक मुलायम-सी सुगबुगाहट | ||
मेरी गर्दन के सूने गलियारों में | मेरी गर्दन के सूने गलियारों में | ||
− | अब भी रेंग रही है और बदन की सतह पर | + | अब भी रेंग रही है |
+ | और बदन की सतह पर | ||
अंगुलियाँ चलती रहती हैं रात-दिन | अंगुलियाँ चलती रहती हैं रात-दिन | ||
जैसे भटक जाता है कोई जंगल में | जैसे भटक जाता है कोई जंगल में | ||
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मेरा, बीमार-सा बिस्तर पर लेटे रहना यूँ ही | मेरा, बीमार-सा बिस्तर पर लेटे रहना यूँ ही | ||
और कमर के किनारे बैठ कर तुम्हारा कहना- | और कमर के किनारे बैठ कर तुम्हारा कहना- | ||
− | + | अफसोस न करो, जल्द अच्छे हो जाओगे | |
मेरी माँ की याद ताज़ा कर देती है | मेरी माँ की याद ताज़ा कर देती है | ||
माँ, नहीं जानती है तुम्हारे बारे में | माँ, नहीं जानती है तुम्हारे बारे में | ||
बस यही सोचकर मैंने भी नहीं चाहा कि वह जाने | बस यही सोचकर मैंने भी नहीं चाहा कि वह जाने | ||
− | क्या उसे बुरा नहीं लगेगा | + | क्या उसे बुरा नहीं लगेगा कि उसके बेटे को |
− | कोई उसकी तरह प्यार करती है समझती है, | + | कोई उसकी तरह प्यार करती है समझती है, चाहती है |
− | चाहती है आज फिर अकेलेपन से डर लग रहा है मुझे | + | आज फिर अकेलेपन से डर लग रहा है मुझे |
आज फिर नींद नहीं आई है सारी रात मुझे | आज फिर नींद नहीं आई है सारी रात मुझे | ||
आज फिर सुबह की आँख ने उगला सूरज | आज फिर सुबह की आँख ने उगला सूरज |
00:17, 18 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण
तुम्हारे नर्म-से होंठों की
एक मुलायम-सी सुगबुगाहट
मेरी गर्दन के सूने गलियारों में
अब भी रेंग रही है
और बदन की सतह पर
अंगुलियाँ चलती रहती हैं रात-दिन
जैसे भटक जाता है कोई जंगल में
जैसे खो जाता हूँ मैं तुम्हारी आँखों में
बर्फ-सी सर्द ज़िंदगी में कुछ लम्हे ठूँस कर
यादों को सुलगाने की नाकाम कोशिश
एक बार फिर कामयाब होती दिखाई देती है
मेरा, बीमार-सा बिस्तर पर लेटे रहना यूँ ही
और कमर के किनारे बैठ कर तुम्हारा कहना-
अफसोस न करो, जल्द अच्छे हो जाओगे
मेरी माँ की याद ताज़ा कर देती है
माँ, नहीं जानती है तुम्हारे बारे में
बस यही सोचकर मैंने भी नहीं चाहा कि वह जाने
क्या उसे बुरा नहीं लगेगा कि उसके बेटे को
कोई उसकी तरह प्यार करती है समझती है, चाहती है
आज फिर अकेलेपन से डर लग रहा है मुझे
आज फिर नींद नहीं आई है सारी रात मुझे
आज फिर सुबह की आँख ने उगला सूरज
न तो माँ दिखी है और न ही तुम्हारा मुस्कुराना
स्याह रात में मैंने लिखा ये सफ़ेद अफ़साना