भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"संदल के सर्द जंगल से आ-आ के थक गई हवा / निश्तर ख़ानक़ाही" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निश्तर ख़ानक़ाही |संग्रह= }} Category:ग़ज़ल <poem> संदल …) |
(कोई अंतर नहीं)
|
09:24, 19 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण
संदल के सर्द जंगलों से आ-आ के थक गई हवा ।
जब भी वो बन सुलग उठे महक-महक गई हवा ।
इतने दिनों में ये ज़मीं बदल चुकी थी रास्ते
उतरी जो अम्बरों से फिर भटक-भटक गई हवा ।
देखे तो कल जो ख़्वाब में जाने वह गुल[1] कहाँ खिले
पिन्हा[2] रुतों की खोज में आ-आ के थक गई हवा ।
कूज़ागरों[3] के चाक पर ढले-ढलाए आदमी
मुझको ये किस जहान में ला के पटक गई हवा ।
साहिल की नर्म रेत पर तन्हा खड़ा हुआ था मैं
जान के मुझको अजनबी झिझक-झिझक गई हवा ।
किससे कहूँ कि क्या हुआ, कैसे रुकी, कहाँ रुकी
वैसे तो मेरे साथ-साथ दूर तलक गई हवा ।
जलने भड़कने बुझने का ख़त्म कहाँ है सिलसिला
अब फिर चिराग़ जल उठे अब फिर सनक गई हवा ।
शब्दार्थ:
1. ↑ फूल
2. ↑ छुपी हुई
3. ↑ कुल्हड़ बनाने वाले कुम्हार