भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"चाहते जीना नहीं पर जीने को मजबूर हैं /वीरेन्द्र खरे 'अकेला'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला' |संग्रह=शेष बची चौथाई रा…)
 
(कोई अंतर नहीं)

17:44, 19 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण

चाहते जीना नहीं पर जीने को मजबूर हैं
ज़िन्दगी से दूर हैं और मौत से भी दूर हैं

दूर से उनके दो नैना जाम अमृत के लगे
पास जा देखा तो पाया ज़हर से भरपूर हैं

जन्म पर दावत सही, है मौत पर दावत मगर
कैसे-कैसे वाह री दुनिया तेरे दस्तूर हैं

ठीक हो जाते कभी के हमने चाहा ही नहीं
जान से प्यारे हमें उनके दिए नासूर हैं

भूखे बच्चों की तड़प, चिथड़ों में बीवी का बदन
ज़िन्दगी हमको तेरे सारे सितम मंज़ूर हैं

लड़खड़ाने पर हमारे तंज़ मत करिए जनाब
हौसला हारे नहीं हैं हम थकन से चूर हैं

व्यस्तताओं की वजह से हम न जा पाते कहीं
लोग कहते हैं ‘अकेला’ जी बहुत मग़रूर हैं