भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कितने भी हुशियार रहो पर धोखा हो ही जाता है /वीरेन्द्र खरे 'अकेला'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला' |संग्रह=सुबह की दस्तक / व…)
 
(कोई अंतर नहीं)

18:55, 20 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण

कितने भी हुशियार रहो पर धोखा हो ही जाता है
लाख सम्हालो जो खोना है वो तो खो ही जाता है

व्यस्त बहुत रहता है उसको वक्त कहाँ है मिलने का
फिर भी जब तब मुझसे अपना रोना रो ही जाता है

अपने सारे दुख तो हँसकर टाल दिया करता हूँ मैं
लेकिन दर्द तुम्हारा मेरी आँख भिगो ही जाता है

ओवर टाइम करते-करते रात बहुत हो जाती है
पापा-पापा रटते-रटते मुन्ना सो ही जाता है

तू मुझको बरबाद अगर कर दे तो कर दे क्या शिकवा
शम्मा के नज़दीक़ पतंगा जलने को ही जाता है

मेरे चेहरे पर फीकापन बोया है तक़लीफ़ों ने
दीवारों का रंग बरसता पानी धो ही जाता है

छोड़ो भी संकोच ‘अकेला’ घाट पे तुम भी आ जाओ
बहती गंगा में हर कोई हाथ तो धो ही जाता है