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"लिख रहे हैं लोग कविताएँ / ओम निश्चल" के अवतरणों में अंतर

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तेजाब-सा कोई
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तेज़ाब-सा कोई
खुशनुमा माहौल में आकर।
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ख़ुशनुमा माहौल में आकर ।
  
 
नींद में
 
नींद में
हर वक्त चुभता है
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हर वक़्त चुभता है
ऑंधियों का शोर--सन्नाटा
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आँधियों का शोर- सन्नाटा
 
कटघरों में ज्यों- पड़े सोए
 
कटघरों में ज्यों- पड़े सोए
कैदियों की पीठ पर चॉंटा
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क़ैदियों की पीठ पर चाँटा
 
तैरता
 
तैरता
 
दु:स्वप्न-सा हर दृश्य
 
दु:स्वप्न-सा हर दृश्य
पुतलियों के ताल में अक्सर।
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पुतलियों के ताल में अक्सर ।
  
 
सड़क पर  
 
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मुस्तैद संगीनें---
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मुस्तैद संगीनें--
 
बंद  अपने ही घरों में हम
 
बंद  अपने ही घरों में हम
आदमी की शक्ल में क़ातिल
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आदमी की शक़्ल में क़ातिल
 
कौन पहचाने किसी का ग़म
 
कौन पहचाने किसी का ग़म
 
हर गली
 
हर गली
 
हर मोड़ पर बैठी
 
हर मोड़ पर बैठी
मौत अपनी बॉंह फैला कर।
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मौत अपनी बाँहे फैला कर ।
  
बर्फ-सा
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बर्फ़-सा
जमता हुआ हर शख्स
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जमता हुआ हर शख़्स
चुप्पियों में कैद हैं सॉंसें
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चुप्पियों में क़ैद हैं साँसें
 
समय की नंगी सलीबों पर
 
समय की नंगी सलीबों पर
गले में अँटकी हुई फॉंसें
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गले में अँटकी हुई फाँसें
 
लिख रहे हैं  
 
लिख रहे हैं  
लोग कविताऍं
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लोग कविताएँ
नींद की फिर गोलियॉं खाकर।
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नींद की फिर गोलियाँ खाकर ।
 
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11:47, 21 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण

भर गया
तेज़ाब-सा कोई
ख़ुशनुमा माहौल में आकर ।

नींद में
हर वक़्त चुभता है
आँधियों का शोर- सन्नाटा
कटघरों में ज्यों- पड़े सोए
क़ैदियों की पीठ पर चाँटा
तैरता
दु:स्वप्न-सा हर दृश्य
पुतलियों के ताल में अक्सर ।

सड़क पर
मुस्तैद संगीनें--
बंद अपने ही घरों में हम
आदमी की शक़्ल में क़ातिल
कौन पहचाने किसी का ग़म
हर गली
हर मोड़ पर बैठी
मौत अपनी बाँहे फैला कर ।

बर्फ़-सा
जमता हुआ हर शख़्स
चुप्पियों में क़ैद हैं साँसें
समय की नंगी सलीबों पर
गले में अँटकी हुई फाँसें
लिख रहे हैं
लोग कविताएँ
नींद की फिर गोलियाँ खाकर ।