भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"क्या व्यवस्थित रख सकेंगे निज घरों को /वीरेन्द्र खरे 'अकेला'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Tanvir Qazee (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला' |संग्रह=शेष बची चौथाई रा…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
16:11, 5 अक्टूबर 2011 के समय का अवतरण
क्या व्यवस्थित रख सकेंगे निज घरों को
व्यर्थ दंडित कर रहे हैं अनुचरों को
नींद तो चिंताओं के कारण न आती
दोष क्या दूँ कंकड़ीले बिस्तरों को
चोट खाकर तिलमिलाया हूं अभी तक
मैं भी समझाने गया था पत्थरों को
नीति सरकारी नहीं आती समझ में
है नदी में बाढ़ पाटा पोखरों को
दो क़दम चलते हैं घंटों हाँफते हैं
देखिये साहिब हमारे रहबरों को
तन के घावों को छुपाए घूमते हैं
उस्तरे सौंपे थे हमने बन्दरों को
ऐ ‘अकेला’ ख़ुद भी कुछ करके दिखाओ
है सरल उपदेश देना दूसरों को