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"मुक्तिबोध के नाम / दिविक रमेश" के अवतरणों में अंतर

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10:44, 4 मई 2008 के समय का अवतरण

सुनो मुक्तिबोध, सुनो!

देखा था जिनको तुमने

शामिल

अंधेरे की शोभा-यात्रा में

वे जो

तुम्हारे युग में

केवल अंधेरे में नंगा होने का साहस करते थे--

वे जिनको तुमने हठात

खिड़की खोल झाँक लिया था

और जो भाग पड़े थे...


तुम तो निकल गए, कहीं दूर

उनकी सज़ा हम पा रहे हैं।


सुनो

वे सब

वही सब/ फिर दोहरा रहे हैं ।

उन्हें अब अंधेरों की ज़रूरत नहीं ।


वे दौड़ते आ रहे हैं

दिन-दहाड़े

चौराहों पर ।


नहीं-नहीं

अब मुझे शक होता है

उस पर भी

जो लेखक बन

जेल में मर गया ।