भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कोंपले फिर फूट आईं शाख़ पर कहना उसे / फ़रहत शहज़ाद" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 11: | पंक्ति 11: | ||
चैन न दे पायेगा वो सीमज़र कहना उसे | चैन न दे पायेगा वो सीमज़र कहना उसे | ||
− | रिस रहा हो खून दिल से | + | रिस रहा हो खून दिल से लब मगर हँसते रहे |
कर गया बर्बाद मुझको ये हुनर कहना उसे | कर गया बर्बाद मुझको ये हुनर कहना उसे |
00:37, 17 अक्टूबर 2011 के समय का अवतरण
कोंपलें फिर फूट आँई शाख पर कहना उसे
वो न समझा है न समझेगा मगर कहना उसे
वक़्त का तूफ़ान हर इक शय बहा के ले गया
कितनी तनहा हो गयी है रहगुज़र कहना उसे
जा रहा है छोड़ कर तनहा मुझे जिसके लिए
चैन न दे पायेगा वो सीमज़र कहना उसे
रिस रहा हो खून दिल से लब मगर हँसते रहे
कर गया बर्बाद मुझको ये हुनर कहना उसे
जिसने ज़ख्मों से मेरा 'शहज़ाद' सीना भर दिया
मुस्कुरा कर आज क्या है चारागर कहना उसे