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दीवाली इस बार / प्रमोद कौंसवाल

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रेला था धुएं का ना आसमान में
खुलती छतरी बम्ब थे ना कनस्तर फ़ोड़
ना आकाश चरखी दीये भी दूर रौशन थीं
दीपमालाएं वह थीं
जो बच्चों के हाथों में
चलीं थीं फूलझड़ियां कुछ थोड़े बहुत ही रहे होंगे
पटाख़े बजाते उनमें मेरे बच्चे थे
कई बच्चे सरदारों के
कई दूर खड़े सुबह के इंतज़ार में
उस फ़ुटपाथ से जले-अधजले
वह भी उठाएंगे ढेर से सुबह जलाएंगे कुछ बजेंगे
कुछ सिर्फ़ फ़ुसफ़ुसाकर रह जाएंगे
 
कुछ मनाई है ऐसे भी संदीप ने गोद लिया बच्चा
खिलखिलाता हुआ वह आया