भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"विरहणी का वसंत-गीत/वीरेन्द्र खरे 'अकेला'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला' |संग्रह=सुब...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

16:28, 25 अक्टूबर 2011 के समय का अवतरण

तड़प रहा है मनवा नैना हैं नम
वासन्ती दिन आये आजा प्रियतम
आजा बालम

दिवसों ने त्यागे हैं धुंधले परिधान
सोने सी किरणों की चादर ली तान
रैनों ने त्यागी है ठिठुरन की रीत
जोड़ी है गर्म-शीत समता से प्रीत
नाचतीं हवाओं के संग सुगंधें
भ्रमरों ने मधुवन में छेड़ी सरगम
तड़प रहा है मनवा..............................

कोयल की कूक लगे कौवे की काँव
निर्जन सा लगता है ये सारा गाँव
भाते ना बाग़ों के सतरंगी फूल
चुभते हैं आँखों में जैसे हों शूल
सुखदायी यह ऋतु भी दुखदायी है
तुम बिन हर मौसम है दुख का मौसम
तड़प रहा है मनवा..............................

सुनहरी छटाओं में कहाँ वो उमंग
सरसों के पीत वसन दिखते बदरंग
दूर हो तुम्हीं तो फिर कैसा उल्लास
संग हो तुम्हारा तो पतझड़ मधुमास
अंतस में विष ही विष घुलता जाता
डसता है ये महका महका आलम
तड़प रहा है मनवा..............................