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"काज़िम जरवली" के अवतरणों में अंतर

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प्रमुख कृतियाँ : किताब-ए-सन्ग (ग़ज़ल संग्रह) , हुसैनियत (सलाम व नौहे), कूचे और कंदीले, इरम ज़ेरे क़लम<br />
 
प्रमुख कृतियाँ : किताब-ए-सन्ग (ग़ज़ल संग्रह) , हुसैनियत (सलाम व नौहे), कूचे और कंदीले, इरम ज़ेरे क़लम<br />
 
प्रमुख सम्मान / पुरूस्कार : यू पी उर्दू अकादमी अवार्ड (1994) किताब-ए-सन्ग के लिए, “शायर-ए-फ़िक्र” द्वारा -इंटरनेशनल पीस फाउंडेशन ® नई दिल्ली ,  “फरोगे अज़ा व विला” द्वारा -इदारा मोह्सिने इस्लाम- मुंबई,
 
प्रमुख सम्मान / पुरूस्कार : यू पी उर्दू अकादमी अवार्ड (1994) किताब-ए-सन्ग के लिए, “शायर-ए-फ़िक्र” द्वारा -इंटरनेशनल पीस फाउंडेशन ® नई दिल्ली ,  “फरोगे अज़ा व विला” द्वारा -इदारा मोह्सिने इस्लाम- मुंबई,
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|रचनाकार=”काज़िम” जरवली
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|संग्रह=महुए / ”काज़िम” जरवली 
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<poem>कभी हमने भी गेहूं की बाली मे महुए पिरोये थे !!!
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मेरे गाँव की यादें नशीली !
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जूही,
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चमेली !
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वो खट्टे, वो मीठे मेरे दिन,
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वो अमिया, वो बेरी !
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कभी गाँव के कोल्हु पर ताज़े गुड के लिये रोये थे !!
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कभी हमने भी........................... महुए पिरोये थे !!!
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कभी भैंस की पीठ पर,
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दूर तालाब पर !
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धान के हरे खेतो के बीच खोये थे !!
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कभी हमने भी.............महुए पिरोये थे !!!
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कच्ची दहरी के पीछे,
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खाई के नीचे !
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ठंडी रातो मे हम भी पयाल पर सोये थे !!
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कभी हमने भी............... महुए पिरोये थे !!!
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एक दिन हम जो जागे,
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गाँव से अपने भागे !
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सारे सपने ना जाने हमने कहाँ डुबोये थे !!
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कभी हमने भी गेहूं की बाली मे महुए पिरोये थे !!!  --”काज़िम” जरवली
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17:34, 8 नवम्बर 2011 का अवतरण

जन्मतिथि : 15 जून 1955
नाम : काज़िम अली रिज़वी उपनाम ”काज़िम” जरवली
जन्मस्थान : जरवल (निकट लखनऊ), उत्तर प्रदेश
प्रमुख कृतियाँ : किताब-ए-सन्ग (ग़ज़ल संग्रह) , हुसैनियत (सलाम व नौहे), कूचे और कंदीले, इरम ज़ेरे क़लम
प्रमुख सम्मान / पुरूस्कार : यू पी उर्दू अकादमी अवार्ड (1994) किताब-ए-सन्ग के लिए, “शायर-ए-फ़िक्र” द्वारा -इंटरनेशनल पीस फाउंडेशन ® नई दिल्ली , “फरोगे अज़ा व विला” द्वारा -इदारा मोह्सिने इस्लाम- मुंबई,

|रचनाकार=”काज़िम” जरवली |संग्रह=महुए / ”काज़िम” जरवली

कभी हमने भी गेहूं की बाली मे महुए पिरोये थे !!!

मेरे गाँव की यादें नशीली !
जूही,
चमेली !

वो खट्टे, वो मीठे मेरे दिन,
वो अमिया, वो बेरी !

कभी गाँव के कोल्हु पर ताज़े गुड के लिये रोये थे !!
कभी हमने भी........................... महुए पिरोये थे !!!

कभी भैंस की पीठ पर,
दूर तालाब पर !

धान के हरे खेतो के बीच खोये थे !!
कभी हमने भी.............महुए पिरोये थे !!!

कच्ची दहरी के पीछे,
खाई के नीचे !

ठंडी रातो मे हम भी पयाल पर सोये थे !!
कभी हमने भी............... महुए पिरोये थे !!!

एक दिन हम जो जागे,
गाँव से अपने भागे !

सारे सपने ना जाने हमने कहाँ डुबोये थे !!
कभी हमने भी गेहूं की बाली मे महुए पिरोये थे !!! --”काज़िम” जरवली