"हंसती हुई कली / ”काज़िम” जरवली" के अवतरणों में अंतर
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19:49, 8 नवम्बर 2011 के समय का अवतरण
यां ज़िन्दगी के नक्श मिटाती है ज़िन्दगी,
यां अब चिराग पीता है खुद अपनी रौशनी।
इन्सां का बोझ सीना-ऐ-गेती पे बार है,
हर वक़्त आदमी से लरज़ता है आदमी ।
रेत उड़ रही है सूखे समंदर की गोद मे,
इंसान खून पी के बुझाता है तशनगी ।
वो दौर आ गया है कि अफ़सोस अब यहाँ,
मफहूम इन्किसार का होता है बुज़दिली ।
पैदा हुए वो ज़र्फ़ के ख़ाली सुखन नवाज़,
इल्मो-ओ-अदब कि हो गयी दीवार खोखली ।
पिघला रही है बर्फ मुहब्बत का चार सु ,
नफरत कि आग जिस्मो के अन्दर छुपी हुई ।
रंगीनियाँ छुपी है दिले सन्ग सन्ग मे ,
होंटो पे फूल बन के टपकती है सादगी ।
ढा देगी बर्फ बनके हक़ीक़त कि एक बूँद,
कितने दिनों टिकेगी ईमारत फरेब की ।
शिकवे जहाँ के भूल गया ज़ेहन देखकर ,
“काज़िम” शजर की शाख पे हंसती हुई कली ।। --काज़िम जरवली