"बेशर्म कहानियां / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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| रंडों में रंडियां, | रंडों में रंडियां, | ||
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| शहरी रणचंडियाँ | शहरी रणचंडियाँ | ||
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| काल और अकाल   | काल और अकाल   | ||
| सब कुछ समेटे हुए | सब कुछ समेटे हुए | ||
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| गोद में दुलराती हैं, | गोद में दुलराती हैं, | ||
| पर, जब जी में आया हमें | पर, जब जी में आया हमें | ||
15:39, 9 नवम्बर 2011 का अवतरण
     बेशर्म कहानियां 
ये जो कहानियां हैं 
बडी मुंहफट्ट और बदतमीज हैं,
मैं कहीं भी होऊ
मुझे कह ही देती हैं,
मेरी जाती बातें 
सरेआम कर देती हैं,
नाती-पूत समेत नंगा कर देती हैं,
चिरकुट पुरखों की
रही-सही अस्मत भी 
हंसोढ़ों के आगे
नीलाम कर देती हैं,
पढाकू कुक्कुरों  से नुचवाने-छितराने
पंडालों-चौरस्तों पर
धकेलकर-पटक कर 
चित्त कर देती हैं
डांटू या फटकारूं 
या, बार-बार लतियाऊ
बेकहन-बेहया बाज नहीं आती हैं,
फंटूसी-फटेहाली-फटीचरी
बकवासी किताबी जुबानों से 
कभी-भी, कहीं भी 
बयां कर देती हैं,
कितना भी दुरदुराऊ
अपनी कुत्तैनी हरकत 
दिखा ही जाती हैं 
खुफिया कहानियां 
हर डगर, हर पहर पर 
बांहें फ़ैलाए--सैकडों-हजारों,
सीने से भेंटने 
अनचाहे मिल जाती हैं,
बीते-अनबीते दिन-रातें
समेटने-सहेजने का झांसा देकर 
अंदरूनी मामलों में 
चोरनी इच्छाओं की 
और मन के कैदखाने में 
कालापानी काट रहे 
बेजा खयालों की 
घुमंतू कहानियां 
दर-ब-दर भटकाकर
बिलावजह थकाती-छकाती हैं,
देहाती इलाकों की गोबरैली झुग्गियों  में 
खरहर जमीन पर माई के हाथों 
पाथी हुई लिट्टियाँ   
लहसुनिया चटनी से 
अघा-अघा चंभवाती हैं,
खानाबदोशों, लावारिस लौडों,
बहुरुपियों, फक्कड़ों, हिजड़ों और गुंडो    
के तहजीबो-करतूतो को
अनायास मुझसे ही क्यों 
अवगत कराती हैं?
दिखलाती हैं विसंगतियां 
शहरी चौराहों पर गाँवों की अल्हड़ियाँ,
भुच्च और बेढब 
गंवई पनघटों पर नगरी मोहल्लों की 
ढीठ और अलहदी ठिंगनी दुलारियाँ,
ठौर-ठौर, डांय-डांय क्वांरी महतारियाँ,
छोरी में छोरे और छोरों में छोरियां,
रंडों में रंडियां,
ब्लाउज और साड़ी में कराटे और पाप वाली
शहरी रणचंडियाँ
लोफर और लुच्ची, लफंगी कहानियां 
लाजवाब लहजे में जीभ लपलपाती हैं
कड़वाहट जीवन की खूब बकबकाती हैं 
हंसती हैं, रोती हैं,
नाच-नाच गाती हैं
अंधों-अपाहिजों, यतीम लावारिसों 
फक्कड़ों, भिखमंगों 
के झुंडों में बैठकर 
कहकहे लगाती हैं,
चुटकले सुना, उनके मन बहलाती हैं 
उनकी लाचारियों पर आंसू बहाती हैं 
हमदर्द होने का नाटक दिखाती हैं 
मनहूस मौसमों में मसखरी कहानियां 
औरताना तालों की मर्दाना चाभियाँ
लतीफे सुना-सुना 
फोड़ती हैं हंसगुल्ले,
बहाने बना-बना 
खोलती हैं ग़मज़दा 
दिला की तिजोरियां,
हैं जमा जिनमें 
जंगीले जेहन के 
खिसियाए ख़्वाबों की 
नकली रेज़गारियाँ,
खरीद नहीं पाएं जो 
खैरियत, खुशहालियां,
लाख हँसाए वो 
ज़ख्म सहलाएं वो 
मिटा नहीं पाएं वो 
कोई रुसवाइयां 
कभी हुईं सगी नहीं 
सौतेली कहानियां,
चोट-मोच-घावों पर 
दर्द-भरे आहों पर 
कसती हैं तानें,
ऐसी डाक्टरनी हैं,
जो नुस्खे बताकर
हम बीमारों से 
पल्ला झाड़ लेती हैं
सच, ये कहानियां हैं 
बहुत कुछ सोचने वाली
बहुत कुछ करने वाली
बहुत कुछ कहने वाली,
होनी और अनहोनी 
आगत और अनागत 
काल और अकाल 
सब कुछ समेटे हुए
ज़िंदगी के ज्वार-भाटे
गोद में दुलराती हैं,
पर, जब जी में आया हमें
कान-बांह उमेठ कर 
अपने ओसारे से 
बाहर पटक देती हैं.
 
	
	

