भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सिर पर आग (कविता) / कैलाश गौतम" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
 
(4 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 5 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
कवि: [[कैलाश गौतम]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:कविताएँ]]
+
{{KKRachna
[[Category:गीत]]
+
|रचनाकार=कैलाश गौतम
[[Category:कैलाश गौतम]]
+
|संग्रह=सिर पर आग / कैलाश गौतम
 
+
}}
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
{{KKCatNavgeet}}
 
+
<poem>
 
सिर पर आग
 
सिर पर आग
 
 
पीठ पर पर्वत
 
पीठ पर पर्वत
 
 
पाँव में जूते काठ के
 
पाँव में जूते काठ के
 
+
क्या कहने इस ठाठ के ।।
क्या कहने इस ठाठ के।।
+
 
+
  
 
यह तस्वीर
 
यह तस्वीर
 
+
नई है भाई
नयी है भाई
+
 
+
 
आज़ादी के बाद की
 
आज़ादी के बाद की
 
+
जितनी क़ीमत
जितनी कीमत
+
 
+
 
खेत की कल थी
 
खेत की कल थी
 
+
उतनी क़ीमत
उतनी कीमत
+
 
+
 
खाद की
 
खाद की
 
 
सब
 
सब
 
 
धोबी के कुत्ते निकले
 
धोबी के कुत्ते निकले
 
 
घर के हुए न घाट के
 
घर के हुए न घाट के
 
+
क्या कहने इस ठाठ के ।।
क्या कहने इस ठाठ के।।
+
 
+
  
 
बिना रीढ़ के
 
बिना रीढ़ के
 
 
लोग हैं शामिल
 
लोग हैं शामिल
 
 
झूठी जै-जैकार में  
 
झूठी जै-जैकार में  
 
 
गूँगों की
 
गूँगों की
 
+
फ़रियाद खड़ी है
फरियाद खड़ी है
+
 
+
 
बहरों के दरबार में
 
बहरों के दरबार में
 
 
खड़े-खड़े
 
खड़े-खड़े
 
 
हम रात काटते
 
हम रात काटते
 
 
खटमल  
 
खटमल  
 
 
मालिक खाट के
 
मालिक खाट के
 
+
क्या कहने इस ठाठ के ।।
क्या कहने इस ठाठ के।।
+
 
+
  
 
मुखिया
 
मुखिया
 
 
महतो और चौधरी
 
महतो और चौधरी
 
 
सब मौसमी दलाल हैं
 
सब मौसमी दलाल हैं
 
 
आज  
 
आज  
 
 
गाँव के यही महाजन
 
गाँव के यही महाजन
 
+
यही आज ख़ुशहाल हैं
यही आज खुशहाल हैं
+
 
+
 
रोज़
 
रोज़
 
 
भात का रोना रोते
 
भात का रोना रोते
 
 
टुकड़े साले टाट के
 
टुकड़े साले टाट के
 
+
क्या कहने इस ठाठ के ।।
क्या कहने इस ठाठ के।।
+
</poem>

17:28, 18 नवम्बर 2011 के समय का अवतरण

सिर पर आग
पीठ पर पर्वत
पाँव में जूते काठ के
क्या कहने इस ठाठ के ।।

यह तस्वीर
नई है भाई
आज़ादी के बाद की
जितनी क़ीमत
खेत की कल थी
उतनी क़ीमत
खाद की
सब
धोबी के कुत्ते निकले
घर के हुए न घाट के
क्या कहने इस ठाठ के ।।

बिना रीढ़ के
लोग हैं शामिल
झूठी जै-जैकार में
गूँगों की
फ़रियाद खड़ी है
बहरों के दरबार में
खड़े-खड़े
हम रात काटते
खटमल
मालिक खाट के
क्या कहने इस ठाठ के ।।

मुखिया
महतो और चौधरी
सब मौसमी दलाल हैं
आज
गाँव के यही महाजन
यही आज ख़ुशहाल हैं
रोज़
भात का रोना रोते
टुकड़े साले टाट के
क्या कहने इस ठाठ के ।।