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00:49, 27 फ़रवरी 2008 के समय का अवतरण
(ज्ञानरंजन को सम्बोधित)
जब से तुम्हारी दाढ़ी में
सफ़ेद बाल आने लगे हैं
तुम्हारे दोस्त
कुछ ऎसे संकेत पाने लगे हैं
कि तुम
ज़िन्दगी की शाम से डर खाने लगे हो
औ' दोस्तों से गाहे-बगाहे नाराज़ रहने लगे हो
लेकिन, सुनो ज्ञान!
हमारे पास ज़िन्दगी की तपती दोपहर के धूप-बैंक की
इतनी आग बाक़ी है
जो एक सघन फ़ेंस को जला देगी
ताकि दुनिया ऎसा आंगन बन जाए
जहाँ प्यार ही प्यार हो
और ज्ञान!
तुम एक ऎसे आदमी हो
जिसके साथ या प्यार हो सकता है या दुश्मनी
तुमसे कोई नाराज़ नहीं हो सकता
तुम्हारे दोस्त, पडौ़सी, सुनयना भाभी, तुम्हारे बच्चे
या अपने आपको हिन्दी का सबसे बड़ा कवि
समझने वाला कुमार विकल
कुमार विकल
जिसकी जीवन-संध्या में अब भी
धूप पूरे सम्मान से रहती है
क्योंकि वह अब भी धूप का पक्षधर है
प्रिय ज्ञान
आओ हम
अपनी दाढ़ियों के सफ़ेद बालों को भूल जाएँ
और एक ऎसी पहल करें
कि जीवन-संध्याएँ
दोपहर बन जाएँ ।