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11:51, 30 नवम्बर 2011 के समय का अवतरण
मैने यह मोम का घोड़ा,
बड़े जतन से जोड़ा,
रक्त की बूँदों से पालकर
सपनों में ढालकर
बड़ा किया,
फिर इसमें प्यास और स्पंदन
गायन और क्रंदन
सब कुछ भर दिया,
औ’ जब विश्वास हो गया पूरा
अपने सृजन पर,
तब इसे लाकर
आँगन में खड़ा किया!
माँ ने देखा—बिगड़ीं;
बाबूजी गरम हुए;
किंतु समय गुजरा...
फिर नरम हुए।
सोचा होगा—लड़का है,
ऐसे ही स्वाँग रचा करता है।
मुझे भरोसा था मेरा है,
मेरे काम आएगा।
बिगड़ी बनाएगा।
किंतु यह घोड़ा।
कायर था थोड़ा,
लोगों को देखकर बिदका, चौंका,
मैंने बड़ी मुश्किल से रोका।
और फिर हुआ यह
समय गुज़रा, वर्ष बीते,
सोच कर मन में—हारे या जीते,
मैने यह मोम का घोड़ा,
तुम्हें बुलाने को
अग्नि की दिशाओं को छोड़ा।
किंतु जैसे ये बढ़ा
इसकी पीठ पर पड़ा
आकर
लपलपाती लपटों का कोड़ा,
तब पिघल गया घोड़ा
और मोम मेरे सब सपनों पर फैल गया!