भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अन्वेषण / रामनरेश त्रिपाठी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=रामनरेश त्रिपाठी
 
|रचनाकार=रामनरेश त्रिपाठी
 
}}
 
}}
{{KKCatKavita‎}}
+
{{KKCatGhazal}}
 
<poem>
 
<poem>
मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में ।
+
मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में।
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में ।।
+
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में॥
  
तू 'आह' बन किसी की, मुझको पुकारता था ।
+
तू 'आह' बन किसी की, मुझको पुकारता था।
मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में ।।
+
मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में॥
  
मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू
+
मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में ।।
+
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में॥
  
बनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू ।
+
बनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू।
आँखे लगी थी मेरी, तब मान और धन में ।।
+
आँखे लगी थी मेरी, तब मान और धन में॥
  
बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता ।
+
बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता।
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में ।।
+
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में॥
  
मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर ।
+
मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर।
उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में ।।
+
उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में॥
  
बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था ।
+
बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था।
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरन में ।।
+
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरन में॥
  
तूने दिया अनेकों अवसर न मिल सका मैं ।
+
तूने दिया अनेकों अवसर न मिल सका मैं।
तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में ।।
+
तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में॥
  
तेरा पता सिकंदर को, मैं समझ रहा था ।
+
तेरा पता सिकंदर को, मैं समझ रहा था।
पर तू बसा हुआ था, फरहाद कोहकन में ।।
+
पर तू बसा हुआ था, फरहाद कोहकन में॥
  
क्रीसस की 'हाय' में था, करता विनोद तू ही ।
+
क्रीसस की 'हाय' में था, करता विनोद तू ही।
तू अंत में हँसा था, महमूद के रुदन में ।।
+
तू अंत में हँसा था, महमूद के रुदन में॥
  
प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना ।
+
प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना।
तू ही मचल रहा था, मंसूर की रटन में ।।
+
तू ही मचल रहा था, मंसूर की रटन में॥
  
आखिर चमक पड़ा तू गाँधी की हड्डियों में ।
+
आखिर चमक पड़ा तू गाँधी की हड्डियों में।
मैं था तुझे समझता, सुहराब पीले तन में ।।
+
मैं था तुझे समझता, सुहराब पीले तन में॥
  
कैसे तुझे मिलूँगा, जब भेद इस कदर है ।
+
कैसे तुझे मिलूँगा, जब भेद इस कदर है।
हैरान होके भगवन, आया हूँ मैं सरन में ।।
+
हैरान होके भगवन, आया हूँ मैं सरन में॥
  
तू रूप कै किरन में सौंदर्य है सुमन में ।
+
तू रूप की किरन में सौंदर्य है सुमन में।
तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में ।।
+
तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में॥
  
तू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में ।
+
तू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में।
तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में ।।
+
तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में॥
  
हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू ।
+
हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू।
देखूँ तुझे दृगों में, मन में तथा वचन में ।।
+
देखूँ तुझे दृगों में, मन में तथा वचन में॥
  
कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है ।
+
कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है।
मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में ।।
+
मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में॥
  
दुख में न हार मानूँ, सुख में तुझे न भूलूँ ।
+
दुख में न हार मानूँ, सुख में तुझे न भूलूँ।
ऐसा प्रभाव भर दे, मेरे अधीर मन में ।।
+
ऐसा प्रभाव भर दे, मेरे अधीर मन में॥
 
</poem>
 
</poem>

13:15, 7 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण

मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में।
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में॥

तू 'आह' बन किसी की, मुझको पुकारता था।
मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में॥

मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में॥

बनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू।
आँखे लगी थी मेरी, तब मान और धन में॥

बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता।
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में॥

मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर।
उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में॥

बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था।
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरन में॥

तूने दिया अनेकों अवसर न मिल सका मैं।
तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में॥

तेरा पता सिकंदर को, मैं समझ रहा था।
पर तू बसा हुआ था, फरहाद कोहकन में॥

क्रीसस की 'हाय' में था, करता विनोद तू ही।
तू अंत में हँसा था, महमूद के रुदन में॥

प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना।
तू ही मचल रहा था, मंसूर की रटन में॥

आखिर चमक पड़ा तू गाँधी की हड्डियों में।
मैं था तुझे समझता, सुहराब पीले तन में॥

कैसे तुझे मिलूँगा, जब भेद इस कदर है।
हैरान होके भगवन, आया हूँ मैं सरन में॥

तू रूप की किरन में सौंदर्य है सुमन में।
तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में॥

तू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में।
तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में॥

हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू।
देखूँ तुझे दृगों में, मन में तथा वचन में॥

कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है।
मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में॥

दुख में न हार मानूँ, सुख में तुझे न भूलूँ।
ऐसा प्रभाव भर दे, मेरे अधीर मन में॥