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जागरण / रामनरेश त्रिपाठी

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युद्ध में रुद्ध है क्यों न हम मान लें,
:घोर संग्राम ही प्रकृति का ध्येय है।
:::(७)
लोक में द्रव्य बल और श्रम शक्ति का
:तुमुल संग्राम अनिवार्य है सर्वदा।
सत्य है, मानवी जगत सौंदर्य से
:पूर्ण है, किंतु है दैन्य ही की कला।
:::(८)
भव्य प्रासाद, रमणीय उद्यान, वन
:नगर अभिराम द्रुत-पंक्ति-मय राजपथ।
दिव्य आभरण, कमनीय रत्नावली
:वस्त्र बहुत रंग के, यान बहुत मान के।
:::(९)
स्वाद के विविध सुपदार्थ, श्रुति और मन-
:हरण प्रियनाद को क्यों न हम यों कहें?
व्यापिनी दीनता और संपत्ति के
:घोर संघर्ष के इष्ट परिणाम हैं।
:::(१०)
नींद जिस भाँति बल-वृद्धि का हेतु है
:मृत्यु भी नव्य रण-भूमि का द्वार है।
चाहती है प्रकृति घोर संघर्ष, तो
:शांति की कल्पना बुद्धि का दैन्य है।
</poem>
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