"काश्मीर / रामनरेश त्रिपाठी" के अवतरणों में अंतर
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:खीर की भवानी के भी कर लिए दर्शन। | :खीर की भवानी के भी कर लिए दर्शन। | ||
जाकर पहलगाँव पंद्रह दिवस काटे | जाकर पहलगाँव पंद्रह दिवस काटे | ||
− | :ठाँव-ठाँव | + | :ठाँव-ठाँव घुच्ची२ खोद-खोद बहलाए मन॥ |
गुलमर्ग आए यहाँ बैठे हैं बिछाए खाट | गुलमर्ग आए यहाँ बैठे हैं बिछाए खाट | ||
:एक ही कमी से चित लगता न एक छन। | :एक ही कमी से चित लगता न एक छन। | ||
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फीके और नीके मुँह विरही जनों के रोज | फीके और नीके मुँह विरही जनों के रोज | ||
:डाक आने बाद देखने को मिल जाते हैं॥ | :डाक आने बाद देखने को मिल जाते हैं॥ | ||
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+ | कब मुँदती है और कब खुलती है आँख | ||
+ | :जान पड़ता ही नहीं जागते कि सोते हैं। | ||
+ | खाट पर पड़े-पड़े टुक-टुक ताकते हैं | ||
+ | :कौन जाने रात और दिन कब होते हैं॥ | ||
+ | चाहते हैं कुछ बात और ही निकलती है | ||
+ | :विरह की पीर हाय! कैसे लोग ढोते हैं। | ||
+ | काशमीर आए यहाँ देखते हैं चारों ओर | ||
+ | :झरने के मिस ये पहाड़ खड़े रोते हैं॥ | ||
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+ | रोबदार चेहरा खिज़ाबदार मूँछ और | ||
+ | :आँखें चतुराई भरी कान बहुश्रुत हैं। | ||
+ | बात पूछने से सीधा उत्तर कभी न देते | ||
+ | :पर मुँह देख-देख हँसते बहुत हैं॥ | ||
+ | बहरे नहीं हैं, पर गहरे बड़े हैं, | ||
+ | :मनमोहने की तरकीब जानते अयुत हैं। | ||
+ | काशमीर आवे तब भूल नहीं जावे | ||
+ | :यहाँ लालाजी३ भी देखने की चीज अद्भुत हैं॥ | ||
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+ | १ ये कवित्त सन १९२९ में काशमीर में साथियों के मनोविनोद के लिए लिखे गए थे | ||
+ | २ गुल्ली डंडा के खेल में जमीन में खोदा हुआ छोटा गढ्ढा | ||
+ | ३ श्रीनगरके एक व्यापारी सज्जन | ||
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12:17, 12 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण
(१)
स्वर्ग से बड़ी है काश्मीर की बड़ाई जहाँ
वास करती है बहू वेश धरके रमा।
सरिता, पहाड़, झील झरनों बनों में जहाँ,
इंद्रपुर से भी है हजार गुनी सुषमा॥
घास छीलती हैं जहाँ अप्सरा अनेक
खड़ी धान कूटती हैं परी किन्नरी मनोरमा।
सड़कें बुहारती घृताची रति रंभा जहाँ
गोबर बटोरती हैं मेनका तिलोत्तमा॥
(२)
मूत्र भरी गलियाँ, पुरीष-भरे घर-द्वार
गंदी हवा, वादी जल, देश उजबक है।
लोग बड़े झूठे, महा मलिन लुगाइयाँ हैं
सौ में जहाँ नब्बे को सुजाक आतशक है॥
खाने को करम माँस मछली पनीर भात
काँगड़ी का कंठ-हार आठ मास तक है।
काशमीर देखा, सब बूझ लिया लेखा
यदि स्वर्ग है यहीं तो फिर कौन-सा नरक है॥
(३)
श्रीनगर देखा डल और कई बल देखे
खीर की भवानी के भी कर लिए दर्शन।
जाकर पहलगाँव पंद्रह दिवस काटे
ठाँव-ठाँव घुच्ची२ खोद-खोद बहलाए मन॥
गुलमर्ग आए यहाँ बैठे हैं बिछाए खाट
एक ही कमी से चित लगता न एक छन।
काशमीर आए, नारी साथ नहीं लाए
यहाँ आकर अनारी ऐसे घूमते हैं बन-बन॥
(४)
ओढ़ना तुषार जैसा तकिया तुहिन जैसा
हिम-सा बिछौना देख बुद्धि चकराती है।
घुटने चिपक जाते कान के निकट जाके
बरफ की मारी पड़ी देह थहराती है॥
इंद्रियों का साथ छोड़ मन भाग जाता कहीं
ऐसी कड़ी शीत गुलमर्ग में सताती है।
और आग की तो कौन चरचा चलावै, यहाँ
ठंढ से विरह की भी आग बुझ जाती है॥
(५)
मोटर का भोंपू सुन थाली छोड़ भागते हैं
राम से अधिक ध्यान डाक में लगाते हैं।
प्रेम-पत्र पाते हैं तो छाती से लगाते और
कोने में लुकाते पढ़-पढ़ मुसकाते हैं॥
पत्र जो न पाते वे हैं बहुत लजाते और
दूसरों के पत्र बाँचने को ललचाते हैं।
फीके और नीके मुँह विरही जनों के रोज
डाक आने बाद देखने को मिल जाते हैं॥
(६)
कब मुँदती है और कब खुलती है आँख
जान पड़ता ही नहीं जागते कि सोते हैं।
खाट पर पड़े-पड़े टुक-टुक ताकते हैं
कौन जाने रात और दिन कब होते हैं॥
चाहते हैं कुछ बात और ही निकलती है
विरह की पीर हाय! कैसे लोग ढोते हैं।
काशमीर आए यहाँ देखते हैं चारों ओर
झरने के मिस ये पहाड़ खड़े रोते हैं॥
(७)
रोबदार चेहरा खिज़ाबदार मूँछ और
आँखें चतुराई भरी कान बहुश्रुत हैं।
बात पूछने से सीधा उत्तर कभी न देते
पर मुँह देख-देख हँसते बहुत हैं॥
बहरे नहीं हैं, पर गहरे बड़े हैं,
मनमोहने की तरकीब जानते अयुत हैं।
काशमीर आवे तब भूल नहीं जावे
यहाँ लालाजी३ भी देखने की चीज अद्भुत हैं॥
१ ये कवित्त सन १९२९ में काशमीर में साथियों के मनोविनोद के लिए लिखे गए थे
२ गुल्ली डंडा के खेल में जमीन में खोदा हुआ छोटा गढ्ढा
३ श्रीनगरके एक व्यापारी सज्जन