भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"वह भी आदमी है / रमेश रंजक" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक |संग्रह=मिट्टी बोलती है /...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 17: | पंक्ति 17: | ||
इक ग़रीबी के सिवा इस आदमी में क्या कमी है ? | इक ग़रीबी के सिवा इस आदमी में क्या कमी है ? | ||
+ | |||
+ | भेद यह बोया गया है | ||
+ | महल की चालाकियों से | ||
+ | और फैलाया गया, कुछ | ||
+ | पालतू बैसाखियों से | ||
+ | |||
+ | इसलिए ईमान की असहाय आँखों में नमी है | ||
</poem> | </poem> |
20:12, 14 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण
कोलकाता में एक रिक्शा-पुलर को देखकर
अब यहाँ से तीर-सी आवाज़ देना लाज़मी है
ढो रहा है जो आदमी की देह, वह भी आदमी है
पेट पाँवों को भगाता है
मगर क्या इस तरह से
है नहीं मंज़ूर, देखूँ
आदमी को इस सतह से
इक ग़रीबी के सिवा इस आदमी में क्या कमी है ?
भेद यह बोया गया है
महल की चालाकियों से
और फैलाया गया, कुछ
पालतू बैसाखियों से
इसलिए ईमान की असहाय आँखों में नमी है