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निरस्त्र / अज्ञेय

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{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय; सुनहरे शैवाल / अज्ञेय
}}
{{KKCatKavita}}<poem>
कुहरा था,
 सागर पर सन्नाटा था : पंछी चुप थे ।थे।
महाराशि से कटा हुआ
 
थोड़ा-सा जल
 
बन्दी हो
 
चट्टानों के बीच एक गढ़िया में
 निश्चल था-- पारदर्श ।था—पारदर्श।
प्रस्तर-चुम्बी
 
बहुरंगी
 
उद्भिज-समूह के बीच
 
मुझे सहसा दीखा
 केंकड़ा एक : 
आँखें ठण्डी
 
निष्प्रभ
 
निष्कौतूहल
 निर्निमेष । निर्निमेष।
जाने
 
मुझ में कौतुक जागा
 
या उस प्रसृत सन्नाटे में
 
अपना रहस्य यों खोल
 
आँख-भर तक लेने का साहस;
 मैंने पूछा : क्यों जी, 
यदि मैं तुम्हें बता दूँ
 मैं करता हूँ प्यार किसी को--को—तो चौंकोगे ? 
ये ठण्डी आँखें झपकेंगी
 औचक ?  
उस उदासीन ने
 सुना नहीं : 
आँखों में
 वही बुझा सूनापन जमा रहा ।रहा।
ठण्डे नीले लोहू में
 
दौड़ी नहीं
 सनसनी कोई । कोई।
पर अलक्ष्य गति से वह
 
कोई लीक पकड़
 
धीरे-धीरे
 
पत्थर की ओट
 
किसी कोटर में
 सरक गया । गया।
यों मैं
 
अपने रहस्य के साथ
 
रह गया
 
सन्नाटे से घिरा
 
अकेला
 
अप्रस्तुत
 
अपनी ही जिज्ञासा के सम्मुख निरस्त्र
 
निष्कवच,
वध्य।वध्य ।</poem>
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