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"दफ़्तर के बाद-२ / रमेश रंजक" के अवतरणों में अंतर

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दिवस दूना
 
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नींद पूरी भर नहीं पाती
 
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धूप गुब्बारे सरीखी
 
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रात आधी...
 
रात आधी...

11:31, 19 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण

रात आधी हो गई है
दिवस दूना
नींद पूरी भर नहीं पाती
धूप गुब्बारे सरीखी
फैलती जाती ।
रात आधी...

कुहनियों के काँपते समकोण पर
पत्थर टिकाए
एक लघु छैनी निरन्तर छाँटती है
अधगढ़ी मूरत लिए घर लौटती
करवट बदल कर छाँह
पीड़ा झाँकती है

फूटते ही पसलियों का दर्द
छलनी हो गई छाती
नींद पूरी भर नहीं पाती
रात आधी हो गई है
दिवस दूना ।