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"सफ़र को जब भी / निदा फ़ाज़ली" के अवतरणों में अंतर
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13:57, 19 जनवरी 2012 का अवतरण
सफ़र को जब भी किसी
दास्तान में रखना
क़दम यकीन में, मंज़िल
गुमान में रखना |
जो सात है वही घर का
नसीब है लेकिन
जो खो गया उसे भी
मकान में रखना |
जो देखती हैं निगाहें
वही नहीं सब कुछ
ये एहतियात भी अपने
बयान में रखना |
वो ख्वाब जो चेहरा
कभी नहीं बनता
बना के चाँद उसे
आसमान में रखना |
चमकते चाँद-सितारों का
क्या भरोसा है
ज़मीं की धुल भी अपनी
उड़ान में रखना |
सवाल तो बिना मेहनत के
हल नहीं होते
नसीब को भी मगर
इम्तहान में रखना |