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"रुख से ज़ुल्फ़ें जब महे-कामिल में सरकाते हैं वो / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर

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रुख से ज़ुल्फ़ें जब महे-कामिल में सरकाते हैं वो
 
रुख से ज़ुल्फ़ें जब महे-कामिल में सरकाते हैं वो
 
तीरगी सदियों की पल में दूर कर जाते हैं वो
 
तीरगी सदियों की पल में दूर कर जाते हैं वो
  
जब भी मिलता हूँ मैं उनसे लब मेरे खुलते नहीं
+
एक झलक के वास्ते बेचैन रहता हूँ सदा
अपने दिल की बात हंसकर मुझसे कह जाते हैं वो
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देखकर हालत मेरी चुपके से मुस्काते हैं वो  
  
मुस्कुरा कर बख्श देते हैं मुझे बेचैनियाँ
+
मुस्कुरा कर वह बढ़ा देते हैं बेचैनी मेरी
उनसे पूछो किसलिए दिल मेरा तड़पाते हैं वो
+
दिल को मेरे किसलिए हर रोज़ तड़पाते हैं वो
  
क्या कहा जाए बदन उनका है नागिन की तरह
+
एक नागिन की तरह लहराता है उनका बदन
जब भी बाहों में मेरी आते हैं बल खाते हैं वो
+
आ के बाहों में मेरी कुछ ऐसे बल खाते हैं वो
  
बेख़ुदी की इन्तिहाँ कहते हैं इसको दोस्तों
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बेख़ुदी में उनकी जानिब जब कभी खिंचता हूँ मैं  
पी के सो जाता हूँ मैं आँखों से छलकाते हैं वो
+
बेरुख़ी के जाम को आँखों से छलकाते हैं वो
  
सुनने वाले गीत सुनकर झूम उठते हैं सभी
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वह तरन्नुम है कि सुनकर झूम उठते हैं सभी
गीत मेरा जब किसी महफ़िल में भी गाते हैं वो
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जब भी महफ़िल में मेरे इस गीत को गाते हैं वो
  
दर हक़ीक़त जो भी हाज़िर है हबीब अमने 'रक़ीब'
+
जीते जी ख्वाहिश न पूरी अपनी कर पाया 'रक़ीब'
अश्क़ ही पीते हैं अपने और ग़म खाते हैं वो
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ख्वाहिशे-दिल ख़्वाब में भी पूरी कर जाते हैं वो
 
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23:44, 24 जनवरी 2012 का अवतरण

रुख से ज़ुल्फ़ें जब महे-कामिल में सरकाते हैं वो
तीरगी सदियों की पल में दूर कर जाते हैं वो

एक झलक के वास्ते बेचैन रहता हूँ सदा
देखकर हालत मेरी चुपके से मुस्काते हैं वो

मुस्कुरा कर वह बढ़ा देते हैं बेचैनी मेरी
दिल को मेरे किसलिए हर रोज़ तड़पाते हैं वो

एक नागिन की तरह लहराता है उनका बदन
आ के बाहों में मेरी कुछ ऐसे बल खाते हैं वो

बेख़ुदी में उनकी जानिब जब कभी खिंचता हूँ मैं
बेरुख़ी के जाम को आँखों से छलकाते हैं वो

वह तरन्नुम है कि सुनकर झूम उठते हैं सभी
जब भी महफ़िल में मेरे इस गीत को गाते हैं वो

जीते जी ख्वाहिश न पूरी अपनी कर पाया 'रक़ीब'
ख्वाहिशे-दिल ख़्वाब में भी पूरी कर जाते हैं वो