भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"रुख से ज़ुल्फ़ें जब महे-कामिल में सरकाते हैं वो / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
SATISH SHUKLA (चर्चा | योगदान) |
SATISH SHUKLA (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
{{KKCatGhazal}} | {{KKCatGhazal}} | ||
<poem> | <poem> | ||
+ | |||
रुख से ज़ुल्फ़ें जब महे-कामिल में सरकाते हैं वो | रुख से ज़ुल्फ़ें जब महे-कामिल में सरकाते हैं वो | ||
तीरगी सदियों की पल में दूर कर जाते हैं वो | तीरगी सदियों की पल में दूर कर जाते हैं वो |
23:48, 24 जनवरी 2012 का अवतरण
रुख से ज़ुल्फ़ें जब महे-कामिल में सरकाते हैं वो
तीरगी सदियों की पल में दूर कर जाते हैं वो
एक झलक के वास्ते बेचैन रहता हूँ सदा
देखकर हालत मेरी चुपके से मुस्काते हैं वो
मुस्कुरा कर वह बढ़ा देते हैं बेचैनी मेरी
दिल को मेरे किसलिए हर रोज़ तड़पाते हैं वो
एक नागिन की तरह लहराता है उनका बदन
आ के बाहों में मेरी कुछ ऐसे बल खाते हैं वो
बेख़ुदी में उनकी जानिब जब कभी खिंचता हूँ मैं
बेरुख़ी के जाम को आँखों से छलकाते हैं वो
वह तरन्नुम है कि सुनकर झूम उठते हैं सभी
जब भी महफ़िल में मेरे इस गीत को गाते हैं वो
जीते जी ख्वाहिश न पूरी अपनी कर पाया 'रक़ीब'
ख्वाहिशे-दिल ख़्वाब में भी पूरी कर जाते हैं वो