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"तेरी आवाज़ / साहिर लुधियानवी" के अवतरणों में अंतर

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('रात सुनसान थी, बोझल थी फज़ा की साँसें <br /> रूह पे छाये थ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
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रात सुनसान थी, बोझल थी फज़ा की साँसें <br />
 
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रूह पे छाये थे बेनाम ग़मों के साए <br />
 
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यूँ अचानक तेरी आवाज़ कहीं से आई <br />
 
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जैसे परबत का जिगर चीर के झरना फूटे <br />
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या ज़मीनों कि मुहब्बत में तड़प कर नागाह <br />
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आसमानों से कोई शोख़ सितारा टूटे <br />
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शहद सा घुल गया तल्खा़बः-ए-तन्हाई में <br />
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रंग सा फैल गया दिल के सियहखा़ने में <br />
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देर तक यूँ तेरी मस्ताना सदायें गूंजीं <br />
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जिस तरह फूल चटखने लगें वीराने में <br />
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तू बहुत दूर किसी अंजुमन-ए-नाज़ में थी <br />
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फिर भी महसूस किया मैं ने कि तू आई है <br />
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और नग्मों में छुपा कर मेरे खोये हुए ख्वाब <br />
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मेरी रूठी हुई नींदों को मना लाई है <br />
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रात की सतह पे उभरे तेरे चेहरे के नुकूश <br />
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वही चुपचाप सी आँखें वही सादा सी नज़र <br />
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वही ढलका हुआ आँचल वही रफ़्तार का ख़म <br />
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वही रह रह के लचकता हुआ नाज़ुक पैकर<br />
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तू मेरे पास न थी फिर भी सहर होने तक <br />
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तेरा हर साँस मेरे जिस्म को छू कर गुज़रा <br />
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क़तरा क़तरा तेरे दीदार की शबनम टपकी <br />
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लम्हा लम्हा तेरी ख़ुशबू से मुअत्तर गुज़रा <br />
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मैं तेरी राह न देखूँगा सियाह रातों में <br />
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नग़्मा-ओ-शेर की उभरी हुई बरसातों में <br />
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मेरे तपते हुए माहौल में आ जायेंगे <br />
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17:56, 31 जनवरी 2012 का अवतरण

रात सुनसान थी, बोझल थी फज़ा की साँसें

रूह पे छाये थे बेनाम ग़मों के साए

दिल को ये ज़िद थी कि तू आए तसल्ली देने

मेरी कोशिश थी कि कमबख्त को नींद आ जाए


देर तक आंखों में चुभती रही तारों कि चमक

देर तक ज़हन सुलगता रहा तन्हाई में

अपने ठुकराए हुए दोस्त की पुरसिश के लिए

तू न आई मगर इस रात की पहनाई में


यूँ अचानक तेरी आवाज़ कहीं से आई

जैसे परबत का जिगर चीर के झरना फूटे
या ज़मीनों कि मुहब्बत में तड़प कर नागाह
आसमानों से कोई शोख़ सितारा टूटे

शहद सा घुल गया तल्खा़बः-ए-तन्हाई में
रंग सा फैल गया दिल के सियहखा़ने में
देर तक यूँ तेरी मस्ताना सदायें गूंजीं
जिस तरह फूल चटखने लगें वीराने में

तू बहुत दूर किसी अंजुमन-ए-नाज़ में थी
फिर भी महसूस किया मैं ने कि तू आई है
और नग्मों में छुपा कर मेरे खोये हुए ख्वाब
मेरी रूठी हुई नींदों को मना लाई है

रात की सतह पे उभरे तेरे चेहरे के नुकूश
वही चुपचाप सी आँखें वही सादा सी नज़र
वही ढलका हुआ आँचल वही रफ़्तार का ख़म
वही रह रह के लचकता हुआ नाज़ुक पैकर

तू मेरे पास न थी फिर भी सहर होने तक
तेरा हर साँस मेरे जिस्म को छू कर गुज़रा
क़तरा क़तरा तेरे दीदार की शबनम टपकी
लम्हा लम्हा तेरी ख़ुशबू से मुअत्तर गुज़रा

अब यही है तुझे मंज़ूर तो ऐ जान-ए-बहार
मैं तेरी राह न देखूँगा सियाह रातों में
ढूंढ लेंगी मेरी तरसी हुई नज़रें तुझ को
नग़्मा-ओ-शेर की उभरी हुई बरसातों में

अब तेरा प्यार सताएगा तो मेरी हस्ती
तेरी मस्ती भरी आवाज़ में ढल जायेगी
और ये रूह जो तेरे लिए बेचैन सी है
गीत बन कर तेरे होठों पे मचल जायेगी

तेरे नग्मात तेरे हुस्न की ठंडक लेकर
मेरे तपते हुए माहौल में आ जायेंगे
चाँद घड़ियों के लिए हो कि हमेशा के लिए
मेरी जागी हुई रातों को सुला जायेंगे