भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"शबाब की जिंदगी / ”काज़िम” जरवली" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=काज़िम जरवली |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem>उत...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

03:30, 24 फ़रवरी 2012 के समय का अवतरण


उतनी ही जिंदगी है अज़ीज़ो शबाब में,
रहती है जितनी देर ये शबनम गुलाब में ।

वो कौन शख्स था जो मुझे दे के सो गया,
बूढी पलक के बाल पुरानी किताब में ।

दुनिया उसे भी मानने लगती है शह सवार,
जिसने कभी भी पाँव न रखा रकाब में ।

आगे कभी न बढ़ता दरख्तों का सिलसिला,
कुदरत गुलों का हुस्न जो रखती हिजाब में ।

हमने खुद अपनी ज़ात में महसूस कर लिया,
दुनिया खुदा को ढून्ढ रही है किताब में ।

मैंने वही किया है जो दिल को भला लगा,
"काज़िम" पड़ा नहीं मैं गुनाहों सवाब में ।। -- काज़िम जरवली