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"लिहाज़ है कुछ न तुम ओ तू का / रविंदर कुमार सोनी" के अवतरणों में अंतर

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ये क्या सलीक़ा है गुफ़्तगू का  
 
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मिली मुहब्बत में सुर्ख़रूई  
 
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रहा न ग़म कोई आबरू का  
 
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मिला जो ज़हर ए ग़म ए मुहब्बत  
 
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तो रँग गहरा हुआ लहू का  
 
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नसीम की छेड़ है कली से  
 
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ये राज़ पिन्हाँ है रँग ओ बू का  
 
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ये हुस्न ए कामिल की बे हिजाबी  
 
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तो इक तमाशा है आरज़ू का  
 
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डुबो चुके कल जो अपनी किश्ती  
 
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उन्हें है ग़म आज आबजू का  
 
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रवि पे माइल न हो ज़माने  
 
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कि टूट जाएगा दिल अदू का
 
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16:08, 25 फ़रवरी 2012 के समय का अवतरण

लिहाज़ है कुछ न तुम ओ तू का
ये क्या सलीक़ा है गुफ़्तगू का

मिली मुहब्बत में सुर्ख़रूई
रहा न ग़म कोई आबरू का

मिला जो ज़हर ए ग़म ए मुहब्बत
तो रँग गहरा हुआ लहू का

नसीम की छेड़ है कली से
ये राज़ पिन्हाँ है रँग ओ बू का

ये हुस्न ए कामिल की बे हिजाबी
तो इक तमाशा है आरज़ू का

डुबो चुके कल जो अपनी किश्ती
उन्हें है ग़म आज आबजू का

रवि पे माइल न हो ज़माने
कि टूट जाएगा दिल अदू का